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उपदेश-प्रासाद भाग १
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उससे निन्दा और प्रशंसा योग्य नहीं है । राजा ने उसकी श्रद्धा नहीं
की । एक दिन राजपाटिका में जाते हुए मार्ग में बहुत जीवों से आकुलित, दुर्गंध और सूर्य के ताप से उबाले हुए खाई के पानी को देखकर तथा वस्त्र से नाक को ढँककर - अहो ! दुर्गंधि और निन्दनीय जल है, इस प्रकार से राजा ने कहा ! मंत्री ने कहा कि - हे राजन् ! आप जल की निन्दा मत करो । कल के प्रयोग से असुंदर भी सुंदरपने से परिणमन होता हैं । राजा ने अंगीकार नहीं किया। मंत्री ने रहस्य [ गुप्त रूप से] में स्व-आप्त मनुष्यों से वस्त्र से गाले हुए खाई के पानी को कोरक घड़े में डलाया और उसे कतक- चूर्ण आदि से निर्मल किया । फिर से भी गाले हुए पानी को नूतन घड़ों में डाला ! इस प्रकार से इक्कीस दिनों के बाद वह पानी स्वच्छ, मधुर, शीतल और लोकोत्तर प्रायः हुआ ! सुगंध से वासित कर वह जल राजा के जल रक्षकों को दिया । समय पर वे राजा के समीप में जल ले गये । उस जल के लोकोत्तर गुणों को प्राप्त कर राजा ने उनसे पूछा कि - इस जल को कहाँ से प्राप्त किया हैं ? उन्होंने कहा कि- मंत्री ने अर्पण किया हैं । राजा
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मंत्री से पूछा, तब मंत्री ने कहा कि - हे राजन् ! आप यदि अभय दोगें तो मैं जल की उत्पत्ति के बारे में कहूँगा । राजा के द्वारा अभय देने पर मंत्री ने यथा वृत्तांत कहा। राजा ने श्रद्धा नहीं की । मंत्री ने पूर्वोक्त विधि से राजा के समक्ष किया । यह देखकर विस्मित हुए राजा ने कहा कि- तुमने यह कैसे जाना हैं ? उसने कहा कि- हे राजन् ! जिनागम, श्रुत आदि की श्रद्धा से और यह ही पुद्गलों का परिणाम हैं । हे राजन् ! पुद्गलों की अचिन्तनीय शक्ति परिणमन, स्वभाव, तिरोभावपने से अनेक प्रकार से हैं । वह ज्ञानियों के ज्ञान में प्रकट होता हैं, परंतु ज्ञानावरण आदि कर्मों से आवृत्त छद्मस्थों को सम्यग् उपलब्धि नहीं