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________________ २७४ उपदेश-प्रासाद - भाग १ उसके समीप में मौनपने से ही रहते हुए भी गुरु से अधिकतर हुआ कोकास लीला से ही सर्व कलाओं की पात्रता को प्राप्त हुआ । क्रम से सोमिल के स्वर्ग लोक में चले जाने पर पुत्र की कला विकल से राजा की आज्ञा से कोकास ने ही उसके पद को ग्रहण किया । अहो ! प्राचीन के शुभाशुभ कर्म ऐसे होते हैं जो दासी का पुत्र होकर भी अत्यंत ऊँचे गृह-स्वामीत्व को प्राप्त किया और गृहस्वामी ने भी दासत्व को प्राप्त किया । एक दिन गुरु की देशना से कोकास जैन मत में निपुण हुआ सर्वज्ञ धर्म की आराधना करने लगा। इस ओर मालव देश में विचारधवल राजा था । उसे चार नर-रत्न हुए थे । वहाँ रसोईयाँ यथा-अभिलाषित रसोई को करता था जिसको भोजन करने से उसी क्षण में, क्षणांतर में, प्रहर में, उसी दिन अथवा पक्ष-मास आदियों में यथा-इच्छित ही भूख उत्पन्न होती थी, न कि उसके पूर्व अथवा बाद में । शय्या-पालक कुछ वैसी शय्या की रचना करता था, जिसमें सोया हुआ पुरुष घड़ी आदि रूप यथा-इच्छित काल में जाग जाता था । अंगमर्दक एकपल आदि बहुत तैल को शरीर के अंदर आवर्तन करता था, पश्चात् सुख पूर्वक सर्व भी तैल को आकर्षन करता था और स्वल्प भी दुःख का उत्पादन नहीं करता था । चतुर्थ भांडागारिक वैसे भंडार की रचना करता था, जिससे कि उसमें रखे हुए धन को उसके बिना कोई नहीं देख सकता था और वहाँ पर खात्र और अग्नि का भय उत्पन्न नहीं होता था। इन रत्नों से चिन्तित विषयों को साधनेवालें राजा ने बहुत दिनों को व्यतीत कीये। एक दिन पुत्र के अभाव से विरक्त हुआ व्रत को ग्रहण करने की इच्छावाला राजा किसी गोत्री को राज्य देने की इच्छा करने लगा।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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