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णमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स तस्मै श्री गुरुवे नमः ऐं नमः
प्रश्न : 'अहिंसा परमो धर्म:' - अहिंसा श्रेष्ठ धर्म है, अतः यह भी स्पष्ट है कि हिंसा सबसे बडा अधर्म - पाप है। परमात्मा की पूजा में भी जल-पुष्प आदि जीवों की हिंसा होती है, तो फिर उसमें भी पाप लगता ही होगा न ?
उत्तर : यदि आप ऐसा नियम बनायेंगे कि 'जहाँ पर भी हिंसा होती है, वह पाप है ' तो आप एक भी धर्मक्रिया नहीं कर सकेंगे। क्योंकि यह पूरा जगत, जीवों से खचाखच भरा हुआ है, और गृहस्थ जणा (जीवदया ) के पालन का कोई विशेष ध्यान रखनेवालें नहीं होते उल्टा अजयणा से ही प्रवृत्ति करनेकी आदतवालें होते हैं, इसीलिये तो शास्त्रो में गृहस्थको लोहे से भभकते गोले जैसा बताया गया है । जिस तरह लोहे का भभकता गोला जैसे ही जीवों के संपर्क में आता है, उन्हें मारता है; ठीक उसी तरह गृहस्थ जहाँ जाता है वहाँ हिंसा करते ही रहता है । वास्तविकता यह है कि कोई भी धर्मक्रिया हो, चाहे संतोंको वंदन करने जाना हो या व्याख्यान का श्रवण करने जाना हो, सभी में हिंसा तो होती ही है। फिर आपके नियम अनुसार तो वह सब भी पापक्रिया ही बनेगी और फिर गृहस्थ कोई भी धर्मक्रिया कर ही नहीं सकेगा।
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प्रश्न : ऐसी बात नहीं है, शास्त्रोंमें ही कहा है
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'आयं वयं तुल्लिज्जा, लाहाकंखिव्व वाणियओ' (उपदेशमाला) अर्थात् लाभ ( मुनाफा) की इच्छा रखनेवाला बनिया जैसे आय और खर्चका हिसाब लगाकर, जहाँ पर खर्च से आय ज्यादा है, ऐसा व्यापार करता है; उसी तरह संतोको वंदनार्थ जाने में या व्याख्यान के श्रवण हेतु आनेजाने में जीवहिंसा यद्यपि होती है, तथापि उस खर्च (पाप) से कर्मोंका नाश - ज्ञानकी प्राप्ति इत्यादी रुप जो आय होती है वह अधिक होने के कारण, फलतः वह पापक्रिया न बनते हुए, धर्मक्रिया ही बनेगी । उत्तर : तो आपने यह मान ही लिया कि जहाँ पर लाभ ज्यादा है ऐसी धर्मक्रियामें हिंसा होने से ही वह पाप नहीं बन जाती। यह बात परमात्मा की पूजा के लिये भी इतनी ही सही है ।
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