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आगममें कहा है, अब इसका सीधा अर्थ करने पर तो मूर्ति माननी पडेगी। इसलिये क्या किया ? 'जिन' का अर्थ कर दिया अवधिजिन और वह भी मिथ्यात्वी, कामदेव । अब
आप सोचिये। १. जैन शास्त्रोमें सर्वत्र 'जिन' शब्द का प्रयोग सामान्यसे अरिहंत के लिये ही होता है-यदि
कोई विशेष शब्द नहीं जोडा गया हो । अन्यथा तो जैन-जिनका अनुयायी कामदेवका
अनुयायी ऐसा अर्थ भी हो सकता है। २. कामदेवकी प्रतिमा पद्मासनमें कभी नहीं होती। ३. कामदेवके चार नाम ऋषभ,वर्धमान आदि कहीं पर भी प्रसिध्द नहीं है। ४. अन्य मूल आगम-जीवाभिगम सूत्रमें इन प्रतिमाओंकी इन्द्र आदि देव नमुत्थुणं सूत्र से
स्तवना करते हैं ऐसा बताया है । और नमुत्थुणं से अरिहंत के सिवा किसी अन्यकी
स्तवना कहीं पर भी प्रसिध्द नहीं है। ५. इन्द्र समकिती होते हैं- वह कामदेवका स्तवन करे यह कैसे संभवित है ? ६. कामदेवकी मूर्ति का जिनागममें विस्तार से वर्णन होना भी संभव नहीं है।
यह स्पष्ट है कि जिनप्रतिमा का अर्थ अरिहंत की प्रतिमा ही है, परंतु उसे मानने में तो बडी आपत्ति आ जाती है इसलिये ऐसा उल्टा-पुल्टा अर्थ कर दिया है।
जिन्हें अपनी बातको सिध्द करने हेतु आगमों से खिलवाड करना भी मान्य हो, वह सत्यके पक्षमें है या असत्यके यह निर्णय आप ही कर लिजीए । परमात्मा महावीरदेव के जीव को मरीचि के भवमें की हुई एक वाक्यकी उत्सूत्र प्ररुपणाके कारण एक कोटाकोटी सागरोपम(असंख्य वर्ष) संसारमें भटकना पडा यह कभी नहीं भूलना चाहिए। प्रश्न : "मूर्तिपूजा पाप है' ऐसा निर्णय अपनी मति से लिया, ऐसा कहने के
लिये आपके पास क्या सबूत है ? उत्तर : शास्त्रोमें कहीं पर भी ‘परमात्माकी पूजा या मंदिर नहीं बनाना चाहिए-पूजा नहीं करनी चाहिए-उसमें पाप है, ऐसा कोई भी वाक्य नहीं है ।'मूर्तिपूजा को पाप कहनेवालों से आमंत्रण है कि ऐसा शास्त्रवचन हो तो घोषित करें। प्रश्न : हिंसा का निषेध शास्त्रमें है ही और पूजामें हिंसा होती ही है। तो उसका निषेध हो गया न?
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