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________________ लब्धलक्ष्य २३९ गुरुवाणी - ३ करना है । फिर वह शराब का धन्धा हो या माँस का धन्धा हो करने के लिए तैयार रहते हों । मटन टेलो जैसा सुन्दर नाम रखकर भी धन कमाते हैं क्योंकि ध्यान ही धन का है। किसी को कंचन का, किसी को कामिनी का, किसी को कीर्त्ति का, किसी को काया का और किसी को कुटुम्ब का। इस प्रकार किसी न किसी संकल्प में यह जगत् पड़ा हुआ है। महापुरुष कहते हैं कि दुनिया के प्रणिधान छोड़कर उच्च में उच्च विचारों का, उच्च कार्यों का और सद्गति का प्रणिधान करो। किसी भी कार्य का प्रारम्भ करो तो उसे धैर्य के साथ पूर्ण करना चाहिए। कार्य का आरम्भ ही नहीं करना यह बुद्धि का पहला लक्षण है किन्तु आरम्भ करने के बाद उसको पूर्ण करना ही चाहिए। दूसरी प्रवृत्ति - प्रणिधान के बाद प्रवृत्ति को करनी ही पड़ती है न! परिश्रम के बिना कोई भी कार्य सिद्ध नहीं हो सकता । कोई भी प्रवृत्ति प्रारम्भ करो तो विघ्न तो आते ही हैं । चाहे छोटी से छोटी प्रवृत्ति ही क्यों न हो । ' विघ्नजय - विघ्नों को पार करेंगे तभी सफलता मिलेगी । अधिकांशतः मनुष्य कार्य शुरु करते हैं किन्तु विघ्न आते ही रुक जाते हैं । हमने नवपद की ओली प्रारम्भ की.... एक आयम्बिल किया, सिर दुःखने लगा, वमन हुआ.... विघ्न आए, दूसरे दिन पारणा कर लिया। कितने ही लोग विघ्न आने पर प्रारम्भ की हुई प्रवृत्ति को छोड़ देते हैं । कार्यसिद्धि - विघ्न पर विजय हो जाने पर कार्य की सिद्धि हो जाती है। विनियोग - अर्थात् दूसरे को उपदेश दें तो वह उसे स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाए। इन पाँच प्रकार की भूमिकाओं से कोई भी कार्य करने वाला व्यक्ति प्रवृत्ति करता है तो उसे कार्य की सच्ची सफलता मिलती है । सामान्य कार्यों में भी जो इन पाँच रङ्गमंच में से चलना पड़ता है तो परमात्मा को प्राप्त करने के लिए क्यों नहीं प्रवृत्ति करता?
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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