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________________ २२३ गुरुवाणी-३ कृतज्ञता किसी कारण से धर्म मार्ग से च्युत हो जाए तो उसको धर्म (सही) मार्ग पर लाने से, उसका परलोक सुधरे ऐसा करने से तब ही उसके उपकार का बदला चुक सकता है। उपकार का बदला....! अहमदाबाद में पांचकुआ में मेरे पूज्य पिताजी की दुकान के पास में एक सेठ की दुकान थी। इस दुकान में एक ग्रामीण लड़का नौकरी करता था। वह नीतिवान, मेलजोल के स्वभाव वाला था। कभी-कभी मेरे पिताजी के पास में आकर बैठ जाता था। इस सेठ की सन्तानों में केवल एक ही लड़का था, वह पैर से लंगड़ा था। वह व्यापार कर सके इस योग्य नहीं था। समय बीतता गया। वह ग्रामीण लड़का स्वयं की चतुरता से बहुत आगे बढ़ गया। उसने अपनी स्वतन्त्र दुकान कर ली, लाखों रुपये कमाये। इधर सेठ की दशा गिरने लगी, कमाने वाला कोई नहीं रहा, स्वयं भी वृद्ध हो गया। स्थिति बदतर हो चली। उस ग्रामीण लड़के को खबर लगी। वह स्वयं एक बड़ी पेढ़ी का मालिक बन गया था। वह सेठ के पास आया, सेठ के चरणों को छूकर अनुरोध पूर्वक कहा - सेठजी! मेरी पेढ़ी पर पधारिए! आपको केवल गद्दी पर ही बैठे रहना है। आपको वेतन मिलता रहेगा। सेठ को अपनी पेढ़ी पर लाया, गद्दी पर बिठाया। इतना ही नहीं वह उनको सेठ कहकर ही बुलाता था। ऐसे गुण ही मनुष्य को महान् बनाते हैं। धर्माचार्य का उपकार हमारे ऊपर तीसरा उपकार धर्माचार्य का है। ये हमको धर्म समझाकर हमारे दोनों लोकों को सुधारते हैं। इस लोक को भी सुधारते हैं और परलोक को भी सुधारते हैं। धर्माचार्य के उपकार का बदला किसी भी रूप में नहीं दिया जा सकता। एक श्लोक आता है - समकितदायक गुरुतणो पच्चुवयार न थाय, भव कोडाकोडी लगे करतां सर्व उपाय॥
SR No.006131
Book TitleGuru Vani Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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