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गुरुवाणी-२
पर्युषणा-तृतीय दिन अहो ! आज मैंने पुत्र को दुकान पर क्यों बिठाया? अथवा विनाशकाले विपरीत बुद्धिः के अनुसार मैने कहीं विपरीत कार्य तो नहीं कर दिया। पेथड़ इस प्रकार विचार मग्न है, उसी समय सिंहबाल के समान निर्भय होकर झांझण राजा के पास आया। राजा ने उससे पूछा - तुमने घी क्यों नहीं दिया। उसने निडर और निर्भीक होकर कहा - हे स्वामिन् ! सामान्य से सामान्य आदमी के घर भी दो-चार दिन चले इतना तो घी होता ही है, फिर आप जैसे देशाधिपति के घर एक दिन चले उतना भी घी न हो, यह आश्चर्य नहीं तो क्या है? अचानक ही कोई शत्रु आकर किले को घेर ले और उस समय हमारे खाने का भण्डार भरपूर न हो तो प्रजा का रक्षण कैसे करेंगे? राजन् ! आपके यहाँ तो घी की नदियाँ बहनी चाहिए। वैभव-सम्पन्न राजा होकर भी आप यदि प्रजाजनों के समक्ष ऐसे भीख माँगोगे तो प्रजा का पालन और रक्षण कौन करेगा? केवल यही निवेदन करने के लिए मैंने घी नहीं दिया था। राजा उसकी दीर्घदृष्टि और निर्भय वाणी को सुनकर मुग्ध बन गया। राजा ने विचार किया कि मुझे चेताने वाला भी मिल गया। ये दोनों पिता-पुत्र मन्त्री पद के लायक हैं। दोनों का राज्योचित सम्मान किया
और मन्त्रीमद्रा प्रदान कर दी। पेथड़शाह की साधर्मिक भक्ति ....
इस तरफ पुण्योदय से पेथड़ का सुवर्ण-सिद्धि का प्रयोग भी सफल हो गया। चारों तरफ नदी की धारा के समान दान का प्रवाह बहने लगा। सुवर्ण-सिद्धि के प्रयोग से पाँच लाख से अधिक सम्पत्ति एकत्रित हो गई। धर्मघोषसूरिजी महाराज पेथड़ को धन-वैभव-सम्पन्न सुनकर अवन्तिदेश (मध्यप्रदेश) में पधारे। 'सूरिजी पधारें है', यह बधाई के समाचार सुनाने वाले को पेथड़ ने सुवर्ण जिह्वा प्रदान की। गुरु महाराज को वन्दन करने के लिए जाते हैं। विनंती करते हैं - प्रभु! मेरे पास परिग्रह-परिमाण से अधिक धन हो गया है। आप आज्ञा दें, मैं इसका