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________________ १२२ दया गुरुवाणी-२ अन्तर विचारों में खो जाता है - ऐसे साधुओं को मैंने कहीं देखा है। इस प्रकार ऊहापोह करते हुए उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न होता है। उस ज्ञान के प्रभाव से पूर्व भव में साधु धर्म के पालन का स्मरण आता है और देवलोक में भोगे हुए सुख भी याद आते हैं। अत: वह सच्चा साधु बनकर प्रत्येकबुद्ध बन जाता है। माता-पिता तथा समस्त तापसों का एवं कन्दमूल का त्याग कर वह जैन दीक्षा ग्रहण करता है। दया के शुभ परिणामों से वह स्वयं संसार समुद्र से तर गया और अनेकों को तार दिया। *** हमारी धन की कामना कभी भी पूरी नहीं होती है। जिसको सौ मिले वह हजार की कामना करता है। हजार मिलने पर लखपति बनने की, लाख मिलने पर करोड़पति बनने की, करोड़ मिलने पर राजा बनने की, राजा बनने पर चक्रवर्ती और चक्रवर्ती बनने पर इन्द्र जैसा शक्तिशाली होने की अभिलाषा करता है। इस प्रकार इन इच्छाओं का कहीं भी अंत नहीं आता है। इन इच्छाओं के दलदल में फंसकर इंसान अपने आप को भी भूल जाता है।
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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