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________________ ८४ तपाराधना गुरुवाणी-२ भयंकर है आहार संज्ञा? उसी प्रकार साँप वाली हाथलारी के पास कोई मनुष्य आकर खड़ा रहता है, अमुक जाति का साँप माँगता है, हाथलारी वाला साँप के सिर को काट कर उबलते हुए तेल में तल कर माँगने वाले को दे देता है। माँगने वाला मनुष्य साँप को आराम से चबाता-चबाता चला जाता है।' यह मन-घड़न्त बात नहीं है किन्तु जिस भाई ने अपनी आँखों से देखा है उसके कथनानुसार यह सत्य हकीकत है। हमें तो यह सुनते हुए भी घृणा आती है किन्तु दुनिया में ऐसी आहार संज्ञा में डूबे अनेक मनुष्य मिलते हैं। तप उत्तम औषध.... कर्म खपाने के लिए केवल तप ही है। साथ ही शरीर को निरोग बनाने के लिए भी तप जैसी उत्तम कोई औषध नहीं है। दुनिया के समस्त कारखानों में कच्चा माल डाला जाता है तो तैयार माल होकर बाहर आता है। जबकि एक शरीर रूपी कार्यशाला ऐसी है जिसमें तुम अच्छे से अच्छा माल डालो किन्तु वह खराब से खराब विष्टा के रूप में ही बाहर निकालती है। आचार्य भगवन् श्री हेमचन्द्रसूरिजी महाराज योगशास्त्र के तीसरे प्रकाश में कहते हैं - मिष्टान्नान्यपि विष्टासादमृतान्यपि मूत्रसात्। शरीर में डाले हुए समस्त मिष्टान्न विष्टा रूप हो जाते हैं और सुन्दर से सुन्दर पेय पदार्थ भी मूत्र रूप में बन जाता है। ऐसे इस शरीर पर तप द्वारा ही दमन किया जा सकता है। तप यह जीवन की बहुमूल्य पूंजी है। जिस प्रकार दूसरी पूंजी खाने, पीने, पहनने और घूमने आदि कार्यों में काम आती है उसी प्रकार तपरूपी धन भी व्रतों के पालन, जप, ध्यान, इन्द्रियों के दमन आदि में काम आती है, किन्तु यह तप इच्छा का रोधन करने वाला होना चाहिए। आज तप धर्म उन्नति के शिखर पर है। बहुत से लोग मान-सम्मान के लिए ही तप करते हैं। तप करने के बाद जो कोई कशलक्षेम पूछने के लिए नहीं आया हो या उसके निमित्त कोई उत्सव आयोजित नहीं किया गया हो तो मन में तुरन्त ही आर्तध्यान प्रारम्भ हो
SR No.006130
Book TitleGuru Vani Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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