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की...पुत्रवत् प्यार बरसाया ।
राजपुरुषों के साथ चंद्रकुमार जयपुर पहुँचा । सीधा ही वह मृत्युशय्या पर लेटे राजा शत्रुजय के पास गया। पिता के चरणों में प्रणाम किया । पिता की अवस्था देखेकर वह रो पड़ा । राजा ने कहा :
___ वत्स, तू यहाँ आ गया, मेरी आत्मा को शान्ति हुई...यह राज्य मैं तुझे देता हूँ बेटे, मैं मोहवश तेरे गुणों को नहीं पहचान सका...' । राजा बोलते बोलते थक गया । मंत्रियों को कहा : आज ही चन्द्र का राज्याभिषेक कर दो...मेरी जिंदगी का भरोसा नहीं है।
चन्द्रकुमार का राज्याभिषेक कर दिया । राजा शत्रुजय के मन में सूर्यकुमार के प्रति तीव्र रोष उफन रहा था। मैंने जिस पर अपार प्रेम बरसाया, वही मेरा वध करने पर उतारू हो गया? रेष की भावना में ही राजा की मौत हो गयी।'
राजा मरकर एक पहाड़ में शेर हुआ ।
सूर्यकुमार गाँव-गाँव, नगर-नगर, वन-वन भटकता हुआ उसी पहाड़ पर पहुँचा । दूर से शेर आया और भयंकर गर्जना करते हुए शेर ने सूर्य को मार डाला ।
सूर्य मरकर उसी पहाड़ पर आदिवासी के वहाँ जन्मा । जब बड़ा हुआ, अनेक कुकर्म करने लगा। एक दिन शेर ने उसको देख लिया..पूर्व जन्म की वैर भावना से प्रेरित होकर उसको मार डाला। आदिवासियों ने मिलकर शेर को मार डाला।
सूर्य का जीव उसी पहाड़ी में वराह के रूप में जन्मा, राजा का जीव भी वराह रूप में उत्पन्न हुआ। दोनों बड़े हुए... लड़ने लगे। तीन वर्ष तक दोनों आपस में लड़ते रहे । शिकारियों ने दोनों को मार डाला।
मर कर दोनों एक वन में हिरण हुए । बड़े होने पर दोनों पूर्व जन्म के वैर के दुर्भाव से प्रेरित हो, लड़ने लगे । एक दिन शिकारी ने दोनों को मार दिया ।
मर कर दोनों हिरण उसी वन में हाथी बने । थोड़े बड़े होते ही दोनों आपस में लड़ने लगे । एक दिन लड़ते लड़ते दोनों हाथी, अपने हस्ती समूह से अलग हो गये, दूर चले गये । शिकारी ने दोनों हाथी को पकड़ लिया।
शिकारी जयपुर आये और राजा चन्द्र को भेंट दे दिये दोनों हाथी । हस्तीशाला में दोनों को बांध दिये गये । परंतु वहाँ पर भी दोनों लड़ते रहे।
एक दिन जयपुर में महामुनि सुदर्शन पधारे । सूर्य जैसे तेजस्वी और चन्द्र जैसे सौम्य, वे महात्मा केवलज्ञानी थे।
वनपालक ने राजा को सूचित किया । राजा चन्द्र मुनिराज के दर्शन करने के लिए तत्पर हुआ । नगर में घोषणा करवा दी । हजारों स्त्री-पुरुष महामुनि के दर्शन-वंदन और उपदेश-श्रवण करने हेतु राजा के साथ नगर के बाहर बगीचे में पहुँचे ।
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