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____पुण्य क्रिया किये बिना पाप क्रिया रुक नहीं सकती । जब तक जीवन में पाप क्रिया चालु हैं, तब तक पुण्य क्रिया की आवश्यकता है । पाप आत्मा को मलिन करता है । पुण्य आत्मा को पावन बनाता है।
पुण्य कार्य करने में यह ख्याल रखना अत्यंत जरूरी है कि हमें पुण्य कार्य के बदले में किसी भौतिक सुख या पदार्थ की कामना नहीं करनी चाहिये । केवल आत्मकल्याण के शुभ उद्देश्य से ही पुण्य कार्य करना है । दूसरी इच्छा रखने से पुण्य का फल सीमित और संसार सर्जक बन जाता है ।
जीवन में पुण्य (व्यवहार से) उपादेय है । आत्म विकास के साधन रुप मनुष्य गति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर तथा उत्तम कुल-जाति और सुदेव-सुगुरु-सुधर्म की सभी सामग्री आदि की प्राप्ति पुण्य से ही होती है।
पुण्यानुबंधी पुण्य आत्मा को मोक्ष योग्य सभी सामग्री की अनुकूलता प्रदान करके मार्गदर्शक की तरह अपनी मुद्दत तक रहकर वापस चला जाता है । आत्मा को वह संसार में रोक नहीं सकता।
पुण्य तत्त्व के 42 भेद
चार अघाती कर्म में से पुण्य के 42 भेद : 1. वेदनीय कर्म :- शाता वेदनीय 2. आयुष्य कर्म :- देवायु, मनुष्यायु, तिर्यंचायु 3. गोत्र :- उच्च गोत्र 4. नाम कर्म :- कुल 37 1. प्रत्येक (7) :- अगुरु-लघु, निर्माण, आतप, उद्योत, पराघात, उच्छ्वास, तीर्थंकर नाम कर्म। 2. वस दशक (10) :- त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश । 3. पिंड प्रकृति (20) :- 2 गति :- देव तथा मनुष्य गति
1 जाति :- पंचेन्द्रिय पुण्य के 42 भेद 5 शरीर :- औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण । की तालिका 3 उपांग :- औदारिक, वैक्रिय, आहारक
1 संघयण :- वज्रऋषभनाराच वेदनीय
1 संस्थान :- समचतुरस्र आयुष्य
1 वर्ण :- शुभ वर्ण
1 गंध :- सुगंध नाम
1 रस :- शुभ रस गोत्र
1 स्पर्श :- शुभ स्पर्श
2 आनुपूर्वी :- देवानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी 42 |
1 विहायोगति :- शुभ विहायोगति
1
कुल
71