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________________ बहनोई के गाँव में आये । राजमहल के झरोखे में बैठी हुई बहन की नजर रास्ते पर चलते मुनि के ऊपर पड़ते ही विचार करने लगी, “कहाँ गृहस्थावास में मेरे भाई की गुलाब-सी काया और कहाँ आज तप के कारण झुर्रियाँ पड़ी हुई काले कोयले जैसी काया । अरे! चलते-चलते हड्डियाँ लडखडाती हैं। ___इस प्रकार अतीत की सृष्टि में विचार करती हुई भावावेश में आकर वह जोर-जोर से रोने लगी। मुनि पर दृष्टि और रुदन देखकर पास में बैठे हुए राजा ने सोचा कि, "यह संन्यासी इसका पहले का कोई यार पुरुष होगा. अब उससे देहसुख नहीं मिलेगा, इसलिये रानी रो रही होगी। तप से कुश हुए शरीर के कारण अपना साला होते हुए भी राजा मुनि को पहचान न पाया और जल्लादों को कह दिया कि, जाओ... उस मुनि की जीते जी चमड़ी उतार कर ले आओ । जल्लादों ने मुनि को कहा कि "हमारे राजा की आज्ञा है कि आपके शरीर से चमड़ी उतारनी है। उन पर क्रोध न करके मुनि ने आत्म-स्वरुप का विचार करने लगे कि देह और कर्म से आत्मा भिन्न है । चमड़ी तो शरीर की उतारेंगे, इससे मेरे कर्मो की निर्जरा होगी, कर्मनिर्जरा करने का ऐसा अपूर्व अवसर फिर कब आयेगा? इस प्रकार मन में सोचकर जल्लादों को कहा कि, "अरे भाई! तपश्चर्या करने से मेरा शरीर खुरदरा हो गया है । इसलिये तुझे तकलीफ न हो, इस प्रकार मैं खड़ा रहूँ।" मुनि का कैसा उत्तम चिंतन? अपनी तकलीफ का विचार न करके जल्लादों की तकलीफ का विचार करने लगे। अब आप ही सोचिये कि,"जिसकी चमड़ी उतर रही हो, उसे तकलीफ ज्यादा होती है या जो चमड़ी उतार रहा हो, उसे ज्यादा होती है? समताभाव में ओतप्रोत मुनि ने राजा के जल्लादों पर जरा भी द्वेष नहीं किया । चार का शरण स्वीकार कर, काया को वोसिरा कर मुनि शुक्लध्यान पर चढ़ गये । चड़-चड़ चमड़ी उतरती गयी और मुनि शुक्लध्यान में आगे बढ़ते-बढ़ते केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में चले गये। पास में रही हुई मुहपति खून से लाल हो गयी । माँस का टुकडा समझकर चील उसे लेकर आकाश में उड़ने लगी। संयोगवश वह मुहपति राजमहल में रानी के आगे ही गिरी । मुहपति को देखकर रानी ने नौकरों के पास जाँच करवाई तब पता चला कि राजा ने ही हुक्म करके तपस्वी मुनि की हत्या करवाई है । भाई मुनि की करुण मृत्यु जानकर रानी का हृदय थरथर काँपने लगा। आँखों में से बैर-बैर जितने आँसू गिरने लगे । राजा को भी हकीकत का पता चलने पर दोनों छातीफाड़ रुदन करने लगे । संसार में अघटित और अनुचित यह काम हुआ है। अब यदि संसार नहीं छोड़ेंगे, तो ऐसे काम होते रहेंगे, इस प्रकार संसार के स्वरुप का विचार कर दोनों ने दीक्षा लेकर आलोचना ली। एक सज्झाय में भी कहा कि, "आलोई पातकने सवि छंडी कठण कर्मने पीले" आलोचना प्रायश्चित तप वगेरे करके केवलज्ञानी बनकर दोनों मोक्ष में गये। यहाँ पर यह चिंतन करना चाहिये कि पूर्वभव में चीभड़ी की छाल उतारने का प्रायश्चित्त न लिया, तो शरीर की चमड़ी उतरवानी पड़ी और इस भव में मुनि की हत्या करवायी, तो भी प्रायश्चित्त ले लिया, तो राजा-रानी मोक्ष में गये। इस चिंतन में ओत-प्रोत होकर आलोचना लेने में प्रमाद नहीं करना चाहिये।
SR No.006118
Book TitleJain Tattva Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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