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________________ भरत ने चक्र चलाया। समान गोत्र वाले होने से वह चक्र फिर से लौट गया। बाद में भरतेश्वर ने बाहुबलि के सिर पर जोर से मुष्टि प्रहार किया । बाहुबलि घुटनों तक जमीन में धंस गये । बाहुबलिजी की बारी आयी । हुंकार कर उन्होंने मुष्टि तानी । लेकिन विचार किया कि यदि मुष्टिप्रहार करूंगा तो भरत मर जायेगा। मुझे ते भ्रातृहत्या का पाप लगेगा । अब तानी हुई मुट्ठी भी बेकार तो न जानी चाहिये, ऐसा सोचकर बाहुबलिजी ने उस मुट्ठी से उसी समय अपने सिर के बालों का लोच कर डाला और वहीं पर चारित्र भी ग्रहण कर लिया । भरतेश्वर को बड़ा दुःख हुआ । संयम न लेने के लिए उन्हें बहुत समझाया लेकिन बाहुबलिजी चारित्र ग्रहण के लिए अटल रहे । और भगवान द्वारा कहे गये पाँच महाव्रत भी धारण किये । उस समय उन्होंने भगवान को वंदन करने जाने का सोचा, लेकिन इस समय भगवान के पास जाऊँगा तो मुझे प्रथम अट्ठानवें छोटे भाइयों को वंदन करने पड़ेंगे, वे उम्र में छोटे हैं, उनको क्यों नमस्कार करूँ ? ऐसा सोचकर वहीं उन्होंने कायोत्सर्ग किया और तपस्या करके केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद ही भगवान के पास जाने का मन में ठान लिया । बाहुबलिजी ने एक वर्ष तक उग्र तपस्या की । शरीर पर सैंकड़ों शाखाओंवाली लताएँ लिपट गई थी। पक्षियों ने घोंसले बना लिये थे । भगवान श्री ऋषभदेव ने ब्राह्मी एवं सुन्दरी को बुलाकर बाहुबलिजी के पास जाने को कहा और बताया कि मोहनीय कर्म के अंश रूप मान (अभिमान) के कारण उन्हें केवलज्ञान प्राप्त नहीं हो रहा है । बाहुबलि जहाँ तप कर रहे थे वहाँ आकर ब्राह्मी एवं सुन्दरी उपदेश देने लगी और कहा, 'हे वीर ! भगवान (जो हमारे पिताजी है) ने कहलाया है कि हाथी पर बैठे हुए को केवलज्ञान होता नहीं है ।' यह सुनकर बाहुबलिजी सोचने लगे,'मैं कहाँ हाथी पर बैठा हुआ हूँ ? लेकिन दोनों बहिनें भगवान की शिष्या हैं, वे असत्य नहीं बोल सकतीं ।' ऐसा सोचते ही उन्हें समझ आयी कि उम्र में मुझसे छोटे लेकिन व्रतों में बड़े भाइयों को मैं क्यों नमस्कार करूं - ऐसा जो अभिमान मुझमें है - उसी हाथी पर मैं बैठा हूँ । यह विनय मुझे प्राप्त नहीं हुआ, वे कनिष्ट हैं ऐसा सोचकर उनकी वंदना की चाह मुझे न हुई । इसी समय मैं वहाँ जाकर उन महात्माओं को वंदन करूंगा। ऐसा सोचकर बाहुबलि ने कदम उठाया । और उनके सब घाती कर्म टूट गये । उसी समय महात्मा को केवलज्ञान प्राप्त हुआ । 83
SR No.006118
Book TitleJain Tattva Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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