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________________ जैन तत्त्व दर्शन 6.संलीनता :शरीर को संकोच करना | यानि बिना कार्य हिलना नहीं, बैठे-बैठे हाथ, पैर, अंगुली आदि को हिलाना नहीं, सोते वक्त हाथ-पैर फैलाकर नहीं सोना, इस तरह अपने शरीर का संकोच करना । अभ्यंतर तपकी परिभाषा: जो तप करते समय किसी और को मालूम न पडे, सिर्फ करने वाले को ही मालूम हो वह अभ्यंतर (आंतरिक तप) कहलता है। ये 6 प्रकार के है: 1. प्रायश्चित : अपनी छोटी-बड़ी सभी गलतियों के लिए सामने वाले से माफी मांगना यानि मिच्छामि दुक्कडम् कहना । और जो भी पाप हम करते हैं उन सभी को रात में याद करके वह गलतियाँ और पाप फिरसेन करने की कसम लेना । उनसे दूर हटने की कोशिश करना। ____2. विनय : अपने से बड़ों (माता,पिता, दादा, दादी, गुरु, अध्यापक आदि) को प्रणाम-नमन करना। उनका आदर करना। उनकी बातों । को बराबर सुनना | उनकी बातों को काटना नहीं और बड़ों को 'जी' । लगाकर पुकारें । उनसे आदर एवं सम्मान से बात करनी चाहिए। विधर्मी (अन्य धर्मवालों) को जयजिनेन्द्र कहना। 3. वैयावच्च : सेवा करना । अपने से बड़े तपस्वी और बीमार लोगों की सेवा करना। किसी के जख्म पर मरहम लगाना । माता-पिता आदि गुरुजनों के पैर दबाना । समयानुसार तपस्वियों की (आयंबिल, वर्षीतप आदि), साधर्मिक सामूहिक भोज में पुरस्कारी करना । 4.स्वाध्याय:अध्ययन करना | स्वाध्याय के पाँच प्रकार हैं। अ.) वाचना :जो भी धार्मिक पुस्तकें हो, सूत्र आदि को पढ़ना, याद करना । आ.) पूछना :अपने को जो भी शंका हो उसे गुरु से पूछकर उसका समाधान करना। इ.) परावर्तना : पहले पढ़े हुए सूत्र, अर्थ, स्तवन आदि काव्य इन सभी का पुनरावर्तन यानि फिर से याद करना। ई.) अनुप्रेक्षा : पढ़े हुए अध्याय, सूत्र आदि के बारे में बार-बार चिंतन करना, उसके बारे में सोचना। उ.) धर्म कथा : आपस में बैठकर एक दूसरे से धार्मिक बातें करना । जैसे की आज आपने पाठशाला में क्या सीखा, किस महापुरुष की कहानी सुनी । ये सब बातें अपने मित्रों से एवं घर पर माता-पिता इत्यादि से करना । जिससे ज्यादा समय आपका धर्म में रहेगा और फिजूल की बातों में समय बरबाद भी नहीं होगा और कर्म बंधन से भी बच सकेंगे।
SR No.006117
Book TitleJain Tattva Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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