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________________ जैन तत्त्व दर्शन 4. तीर्थ की आशातना से बचें तीर्थ उसको कहते है, जिससे आत्मा संसार सागर में तैरने की क्षमता प्राप्त करे। मनुष्य तीर्थ यात्रा करता है इसलिये कि कर्मों से हलका हो नहीं कि भारी, जैन तीर्थ तीर्थंकरों की पवित्र भूमि होती है, वहाँ पर तीर्थंकरों का पावन सान्निध्य होता है, वहाँ पर भक्ति करने से, पवित्र आचरण करने से, व्रत नियमों का पालन करने से मनुष्य की आत्मा तो क्या तिर्यंचों की आत्मा भी कर्मों का भार कम करके भवरूपी संसार से तिर जाती है। परंतु उससे विपरीत मनुष्य तीर्थयात्रा में जाकर वहाँ पर तीर्थंकरों की भक्ति न कर विकथा करता है। पवित्रता को छोड़कर मलिन आचरण करता है, व्रत नियमों का पालन न कर अभक्ष्य भक्षण - अनाचार में जीव अपना समय बिताता है, वह कर्मों को क्षय करने की जगह अनंतानंत कर्म बाँधता है जिसे अवश्य भोगना ही पड़ता है। शास्त्रों में भी कहा गया है, अन्य क्षेत्रे कृतं पापं, तीर्थ क्षेत्रे विनश्यति तीर्थ क्षेत्रे कृत पापं, वज लेपो भविष्यति अर्थात् : अन्यत्र स्थानों पर किये पापों की निर्जरा तीर्थ पर होती है, मगर तीर्थ भूमि पर किये हुए पापवज के लेप की तरह बन जाते है, जिसे अवश्य भोगना ही पड़ता है। इसलिये तीर्थ यात्रा को पिकनिक के रूप में न लें। तीर्थ स्थानों पर ताश खेलना, फिल्मी गाने सुनना, इत्यादि का त्याग करें। तीर्थ यात्रा के दौरान प्रात: नवकारशी का नियम, जमीकंद व रात्रि भोजन का त्याग अवश्य करें। अत: तीर्थ यात्रा विवेकपूर्ण विधि सहित करके पुण्योपार्जन करें।
SR No.006117
Book TitleJain Tattva Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Jain Mandal Chennai
PublisherVardhaman Jain Mandal Chennai
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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