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________________ अकबर राजा से भेंट __ एकदा कदाचित् प्रधान पुरुषों के मुख के अकबरशाह ने हीरविजय सूरि के निरुपम शम, दम, संवेग, वैराग्यादि गुण सुन के बादशाह अकबर ने अपने नामांकित फरमान भेज के बहुमान पुरस्सर गंधार बंदर से आगरे के पास फतेपुर नगर में दर्शन करने को बुलाया । तब गुरुजी अनेक भव्यजीवों को उपदेश देते हुये, क्रम से विहार करते हुये विक्रम संवत् १६३९ में ज्येष्ठ वदि त्रयोदशी के दिन वहां आए । उस समय में बादशाह के अबुल फजल नामक शिरोमणि प्रधान द्वारा उपाध्याय श्री विमलहर्षगणि आदि अनेक मुनियों से परिवरे हुए बादशाह को मिले । उस अवसर में बादशाह ने बडी खातर से अपनी सभा में बिठाया और परमेश्वर का स्वरूप, गुरु का स्वरूप और धर्म का स्वरूप पूछा और परमेश्वर कैसे प्राप्त हो ? इत्यादि धर्मविचार पूछा । तब श्री गुरु ने मधुर वाणी से कहा कि जिस में अठारह दूषण न हो, सो परमेश्वर है । तथा पंचमहाव्रतादि का धारक गुरु है और आत्मा का शुद्धस्वभाव जो ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप है, सो धर्म है। तब अकबरशाह ने एसा धर्मोपदेश सुन के आगरा से अजमेर तक प्रतिकोश कुंवा मीनार सहित बनाए और जीवहिंसा छोड के दयावान् हो गया । तब अकबरशाह अतीव तुष्टमान हो कर कहने लगा कि हे प्रभु ! आप पुत्र, कलत्र, धन, स्वजन, देहादि में भी ममत्व रहित हो, इस वास्ते आप को सोना, चांदी देना तो ठीक नहीं । परन्तु मेरे मकान में जैनमत की पुरानी पुस्तकें बहुत हैं, सो आप लीजिये और मेरे ऊपर अनुग्रह कीजिये। जब बादशाह का बहुत आग्रह देखा, तब गुरुजी ने सर्व पुस्तक ले कर आगरा नगर के ज्ञानभंडार में स्थापन कर दिये। तब एक प्रहर तक गुरुजी धर्मगोष्ठि करके बादशाह की आज्ञा ले के बडे आडम्बर से उपाश्रय में आए । उस वक्त लोगों में जैनमत की खूब प्रभावना हुई । उस वर्ष आगरे नगर में चौमासा करके सोरीपुर नगर में नेमिजिन की यात्रा वास्ते गये । वहां श्री ऋषभदेव और नेमिनाथजी की बडी और बहुत पुरानी, इन दोनों प्रतिमा और तत्काल के बनाए नेमिनाथ के चरणों की प्रतिष्ठा %EM२३१MMROM
SR No.005849
Book TitleHir Swadhyaya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahabodhivijay
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year1998
Total Pages356
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size6 MB
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