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________________ ૧. લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયના સમર્થક શ્રી અહ`ત્તિથિભાસ્કર ] ૧૩૯ प्रयोग से ही तिथि सामान्य में उसका तात्पर्य- निश्चय सम्भव है तो प्रकरण की अपेक्षा क्यों होगी ? और किसी बाधक आदि के विना सामान्यवाची तिथिशब्द का पर्वतिथि मात्र में संकोच भी क्यों किया जायगा ? " घटेन जलमाहर" - घट से जल लाना चाहियेइस वाक्य में सामान्यवाची घट शब्द का जो अच्छिद्र घट में संकोच किया जाता है वह तो सच्छिद्र घट में जलाहरण की अयोग्यता से होता है । पर उक्तवाक्य के तिथि शब्द के संकोच का ऐसा कोई निमित्त नहीं है । पूर्वमीमांसा के आधान - प्रकरण में " प्राश्नन्ति ब्राह्मणा ओदनम् " यह वाक्य पठित हैं । इससे आधीन के अङ्गभूत ब्रह्मौदन के प्राशनार्थ ब्राह्मण का विधान होता है । इसमें आये हुये सामान्यवाची ब्राह्मण शब्द से यद्यपि आधान-घटक और आधान - बाह्य दोनों ही प्रकार के ब्राह्मण गृहीत हो सकते हैं तो भी ब्राह्मण शब्द को ब्राह्मणमात्र का वोधक मन कर आधान के अंगभूत अध्वर्यु आदि ब्राह्मण- विशेषका ही बोधक माना जाता है । अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि जैसे इस वाक्य में ब्राह्मण शब्द ब्राह्मण विशेष का ही बोधक माना जाता है वैसे ही " 'क्षये पूर्वा तिथिः कार्या ” इस वाक्य में आये हुये तिथि शब्द को भी पर्वतिथि मात्र का ही बोधक मानने में क्या हानि है ? इसका उत्तर बड़ी सरलता से यह दिया जा सकता है कि उक्त वाक्य में आये हुये ब्राह्मण शब्द के अर्थ का संकोच तो आधान-प्रकरण के सहयोग से किया जा सकता है पर " क्षये पूर्वा" इत्यादि वाक्य का सहायक कोई अनुकूल प्रकरण न होने से उसमें आये हुये तिथि शब्द का उक्त प्रकार से अर्थ संकोच करना युक्ति-संगत नहीं है, श्री० सा०सू० जी ने तथा उनके निर्देश पर नाचने वाले पताकाकारने प्रकृत में कोई प्रकरण नहीं प्रदर्शित किया है किन्तु प्रकरण शब्द का अनेक बार प्रयोग मात्र किया है, जिससे अपेक्षित प्रकरण का अभाव स्पष्ट रूप से विदित होता है । " श्रीहीर प्रश्न " " के बाईसवें पृष्ठ में त्रुटित पञ्चमी एवं त्रुटित पूर्णिमा के विषय में विचार किया गया है, तथा उसी ग्रन्थ के चौदहवें पृष्ठ में पूर्णिमा तथा आमावास्या की वृद्धि के विषय में विचार किया गया है । और " श्री सेनप्रश्न" के तीसरे उल्लास में वृद्धा एकादशी के सम्बन्ध में विचार किया गया है। किन्तु किसी भी ग्रन्थ में कल्याणकतिथियों के क्षय तथा वृद्धि के सम्बन्ध में कोई विचार नहीं उपलब्ध होता । इससे सुनिश्चित रूप से यह अनुमान किया जा सकता है कि " क्षये पूर्वा तिथिः कार्या वृद्धौ कार्या तथोत्तरा " इस वचन को प्राचीन जैनग्रन्थकार प्रधान पर्वतिथि-विषयक ही मानते हैं न कि कल्याणकतिथि - विषयक । इस पर हमारा कहना यह है कि पञ्चमी आदि तिथियों में जैसे पर्वतथित्व है वैसे ही कल्याणकतिथित्व भी हैं, अतः उनके क्षय और वृद्धि के विषय में विचार कर देने से कल्याणक- तिथियों के क्षय और वृद्धि के विषय में अपेक्षित विचार भी सम्पन्न हो जाता है । इसलिये कल्याणक तिथि शब्द से उल्लेख करके विचार न करने मात्र से यह अनुमान करना कि कल्याणक तिथियों के क्षय तथा वृद्धि के सम्बन्ध में किसी ग्रन्थ में विचार न किये जाने से " क्षये पूर्वा " इत्यादि वचन कल्याणक - तिथिविषयक नहीं है, उचित न होगा । इस प्रकार कल्याणक से भिन्न पर्व तिथियों के क्षय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005673
Book TitleTithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Pravachan Pracharak Trust
PublisherJain Pravachan Pracharak Trust
Publication Year1977
Total Pages552
LanguageGujarati, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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