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________________ ૧. લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયને સમર્થક શ્રી અહતિથિભાસ્કર ] ૧૩૭ (२) जब अनेकों कल्याणक-तिथियां और तदतिरिक्त पर्वतिथियां क्रम से प्राप्त होती हैं, जैसे बैशाख शुक्ल सप्तमी से वै.शु० पूर्णिमा पर्यन्त, तब उनमें से अन्तिम तिथि का क्षय होने पर क्षय-दिन में उसको औदयिकी बनाने के अनुरोध से पूर्व की सभी तिथियों को एक एक दिन पीछे खींचना होगा। इसका परिणाम यह होगा कि आगे पीछे की दो तीन तिथियों का आलोचन कर तिथि-निर्णय करके धर्मादि के अनुष्ठान में प्रवृत्त होने का जो जनता का अभ्यास पड़ा हुआ है, उसके अनुसार टिप्पणोक्त काल में पूर्व तिथियों की आराधना करने के बाद अन्तिम तिथि के क्षय का ज्ञान होने पर बीती हुई पर्व तिथियों की पुनः एक एक दिन पीछे आराधना न हो सकने से और जिस काल में उनकी आराधना की गई है उसे "क्षये पूर्वा" इत्यादि शास्त्र के अनुसार उन तिथियों का उचित काल न होने से कर्ता को उन तिथियों की उचित काल में आराधना न करने के प्रत्यवाय का भाजन होना पड़ेगा। (३) प्रत्येक संवत्सर में ७० कल्याणक तिथियाँ और प्रत्येक मास में द्वितीया, पञ्चमी आदि अनेक पर्व तिथियाँ भी होती हैं, इस कारण प्रायः प्रत्येक मास में कुछ कल्याणक-तिथियाँ तथा पर्व तिथियाँ आती हैं, और उनमें कभी किसी का क्षय एवं किसी की वृद्धि भी होती है। ऐसी स्थिति में "क्षये पूर्वा' इस शास्त्र के अनुसार यदि क्षीण एवं वृद्ध कल्याणक-तिथियों तथा तद्भिन्न पर्व तिथियों का टिप्पणोक्त काल अस्वीकार किया जायगा तो प्रायः प्रतिमास में अनेक तिथियों के विषय में टिप्पण को अप्रमाण मानना होगा । फलतः पूरे टिप्पण पर अविश्वास होने की स्थिति पैदा हो जाने से जो तिथियाँ जिन दिनों में क्षीण अथवा वृद्ध रूप से टिप्पण में निर्दिष्ट हैं वे उन दिनों में क्षीण वा वृद्ध रूप से भी हैं वा नहीं? इस प्रकार का अनिवार्य सन्देह उत्पन्न हो जाने से "क्षये पूर्वा" इस वचन की प्रवृत्ति के मूल का ही उच्छेद हो जायगा। (४) प्रकरण के बल से "क्षय पूर्वा” इत्यादि वाक्य में आये हुये तिथि पद का '. तात्पर्य प्रधान पूर्वतिथियों में ही ज्ञात होता है, इसलिये कल्याणकतिथियों को उक्त वाक्य का विषय मानना न्याय्य नहीं है। (५) उक्त वचन को यदि कल्याणक-तिथि-विषयक माना जायगा तो जैनशास्त्र के उन प्रामाणिक ग्रन्थों का विरोध होगा जिन में कल्याणकतिथियों को उक्त वचन की अविषयता तथा तद्भिन्न पर्वतिथियों को ही उसकी विषयता सूचित करने वाले उक्त पचन के व्याख्यान प्राप्त होते हैं। (६) कल्याणकतिथियों की आराधना लोकाचार के अनुसार सम्पन्न हो सकती है अतः प्रयोजन न होने से उन्हें उक्त वचन का विषय मानना ठीक नहीं है। _____ इन उपर्युक्त कारणों में एक भी ऐसा नहीं है जिसके बल से यह सिद्ध हो सके कि कल्याणकतिथियाँ "क्षये पूर्वा" इस बचन के विषय नहीं हैं किन्तु उनसे भिन्न पर्वतिथियाँ ही उसके विषय हैं। (१) जैसे-पहला कारण तभी युक्त हो सकता है जब टिप्पण-निर्दिष्ट काल को तत्तत् तिथियों का मुख्यकाल माना जाय। और यदि ऐसा माना जायगा तो कल्याणक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005673
Book TitleTithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Pravachan Pracharak Trust
PublisherJain Pravachan Pracharak Trust
Publication Year1977
Total Pages552
LanguageGujarati, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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