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[ જૈન દૃષ્ટિએ તિધિદિન અને પર્વરાધન-સંમહવિભાગ का भेद न मानते हुये श्रीरामचन्द्रसूरि ने स्पष्ट ही कहा है कि क्षीण पर्वतिथि सूर्योदयकाल में न होते हुए भी अपनी स्वतंत्र सत्ता और आराध्यता नहीं खोती तथा वृद्ध तिथि दो दिन सूर्योदय काल में होते हुये भी अपनी एकता को रक्षित रखती है और केवल दूसरे ही दिन आराध्य होती है। ___ "श्री हीरप्रश्न" के बाईसवें पत्र में-पूर्णिमायाञ्च त्रुटितायां त्रयोदशीचतुर्दश्योः क्रियते, विस्मृतौ तु प्रतिपद्यपि” यह वाक्य उपलब्ध होता है। इसमें " त्रयोदशीचतुर्दशी" इस समस्त शब्द के आगे जो द्विवचन विभक्ति का प्रयोग किया गया है उसके आधार पर श्री सागरानन्दसूरि के समर्थकों का यह कहना है कि पूर्णिमा के क्षय-प्रसंग में त्रयोदशी का ही क्षय "श्री हीरप्रश्न" को सम्मत है। अन्यथा यदि चतुर्दशी में चतुर्दशी और पूर्णिमा दोनों का सन्निवेश इष्ट होता तो त्रयोदशी शब्द का प्रयोग न करके चतुर्दशी शब्द के आगे एकवचन विभक्ति का ही प्रयोग किया गया होता। पर ऐसा नहीं किया गया है, अतः यह मानना आवश्यक है कि टिप्पण के अनुसार त्रयोदशी और चतुर्दशी में क्रम से चतुर्दशी और पूर्णिमा की आराधना के सूचनार्थ हो द्विवचनान्त "त्रयोदशीचतुर्दशी" शब्द का प्रयोग किया गया है। परन्तु यह कथन युक्त नहीं है, क्योंकि द्विवचनान्त “त्रयोदशीचतुर्दशी" शब्द का प्रयोग यह सूचित करने के लिये किया गया है कि पूर्णिमा के अक्षय में षष्ठतपको जैसे चतुर्दशी के दिन आरम्भ करके पूर्णिमा को समाप्त किया जाता है उसी प्रकार पूर्णिमा के क्षय में त्रयोदशी को आरम्भकर चतुर्दशी में उसकी समाप्ति करनी चाहिये । यह सूचना एकवचनान्त चतुर्दशी-शब्द के प्रयोग से नहीं साध्य हो सकती थी अतः द्विवचनान्त समस्त शब्द के प्रयोग का संविधान किया गया। उस द्विवचनान्त शब्द के प्रयोग का यही प्रयोजन ग्रन्थकार को भी मान्य है-इस तथ्य की पुष्टि " त्रयोदश्यां विस्मृतौ प्रतिपद्यपि " इस अग्रिम ग्रन्थ से होती है। इसका अर्थ यह है कि यदि विस्मरणवश त्रयोदशी में षष्ठ का आरम्भ न हो सके तो चतुर्दशी को आरम्भ कर प्रतिपद को भी समाप्त किया जा सकता है। श्रीसागरानन्दसूरि के कथनानुसार उस द्विवचनान्त शब्द के प्रयोग का प्रयोजन यदि चतुर्दशी और पूर्णिमा की आराधना का सूचन माना जायगा तो उक्त अग्रिम ग्रन्थ से जो विकल्प बताया गया है, उसकी संगति नहीं होगी। क्योंकि प्रतिपद् में चतुर्दशी वा पूर्णिमा का लेश भर भी सम्बन्ध न होने से उसको लेकर चतुर्दशी और पूर्णिमा की आराधना करने का उपदेश अनुचित है। ___“निशीथचूर्णि" में "अभिवढितसंवच्छरे जत्थ अहिमासो पडति, तो असाढपुण्णिमाओ वीसति राते गते भण्णति ठियामो त्ति" यह वचन मिलता है। इसका भाव यह है कि युगान्त में आषाढ की वृद्धि होने पर दूसरी आषाढपूर्णिमा से बीस रात बीत जाने पर मुनि को एक निश्चित-स्थान में चार्तुमास के अन्त तक ठहरने का निश्चय कर लेना चाहिये। ___ यहाँ श्री सागरानन्दसूरि का कथन यह है कि उक्त वचन में आषाढ पूर्णिमा शब्द का जो प्रयोग किया गया है उससे सूचित होता है कि युगान्त में आषाढ की वृद्धि होने पर दूसरी आषाढ पूर्णिमा का “ सूर्यप्राप्ति" "ज्योतिष्करण्डक" आदि जैनसम्प्रदाय के ज्योतिष ग्रन्थों में जो क्षय होने की बात कही गई है उसकी वास्तविकता “ निशीथचूर्णि" को मान्य नहीं है, अन्यथा पूर्णिमा का वास्तविक क्षय मानने पर उक्त वचन में उस आषाढ पूर्णिमा की विद्यमा. नवत् चर्चा नहीं हो सकती । श्रीसागरानन्दसूरि का यह कथन भी युक्तिशून्य ही है। ___ क्यों कि "सूर्यप्राप्ति" आदि प्रामाणिक ग्रन्थों के अनुसार जो लोग तिथि का वास्तविक क्षय मामते हैं वे भी क्षीण विधि का अत्यन्त लोप न मान कर केवल सूर्योदय-काल में उसका
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