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૧. લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયને સમર્થક શ્રી અહરિથિભાસ્કર ]
૧૦૫ अक्षयदशा में तो चतुर्दशी और पूर्णिमा में किया जाता है पर पूर्णिमा के क्षयप्रसंग में चतुर्दशी और पूर्णिमा दोनों का एक ही दिन समावेश हो जाने पर दो दिनों में सम्पन्न होने वाले षष्ठतप का अनुष्ठान कैसे करना चाहिये ? इस प्रश्न के उत्तर में “हीरप्रश्न" के उस ग्रन्थांश से त्रयोदशी और चतुर्दशी में उस षष्ठतप के अनुष्ठान की व्यवस्था की गई है, ऐसा भी कहा जा सकता है, फिर केवल उस ग्रन्थ के बल से पताकाकार के ईप्सित अर्थ का साधन कैसे किया जा सकता है? ___ दूसरी बात यह भी सोचने की है कि पूर्णिमा का क्षय आने पर उक्त युक्ति से त्रयोदशी के क्षयप्रतिपादन में उस ग्रन्थांश का तात्पर्य कदाचित् सम्भव भी मान लिया जाय तो भी उस से पूर्णिमा की वृद्धि के प्रसंग में त्रयोदशी की वृद्धि का साधन कैसे किया जा सकता है ? क्यों कि पूर्णिमा की वृद्धि होने पर "वृद्धौ कार्या तथोत्तरा” इस वचन के आधार पर दूसरे ही दिन पूर्णिमा की आराधना की व्यवस्था हो जाने पर चतुर्दशी और पूर्णिमा का व्यवधान हटाने के निमित्त पूर्णिमा के पहले दिन चतुर्दशी की कल्पना आवश्यक होने के नाते पूर्णिमा की वृद्धि न होने पर भी चतुर्दशी को दो दिन औयिकी मान कर और “वृद्धौ कार्या तथोत्तरा” इस वचन से दूसरे ही दिन उसकी आराधना की व्यवस्था कर देने से भी कोई दोष नहीं होगा, तो फिर त्रयोदशी की वृद्धि मानने की क्या आवश्यकता?
इसी बीसवें पृष्ठ में स्थानाङ्गसूत्रोक्त जीत-व्यवहार का स्वरूप बताकर जीतव्यवहार से भी श्रीसागरानन्दसूरि का अर्थ सिद्ध होता है-ऐसा पताकाकार ने कहा है, यहाँ हम यह पूछना चाहते हैं कि “जीतव्यवहारेणाप्ययमर्थः सिद्धयति" इस वचन में आये “अपि” शब्द से क्या विवक्षित है ? यदि आगम आदि, तो उसका प्रदर्शन क्यों नहीं किया गया ? यदि कहें कि वह आगम "क्षये पूर्वा" इत्यादि शास्त्रीय वचन ही है और उसका प्रदर्शन अनेकों बार किया जा चका है, तो यह कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि उस वाक्य का क्या अर्थ होना चाहिये-यह अब तक निश्चित नहीं हो सका है, अतः आप के विवक्षित अर्थ में ही इस वाक्य का तात्पर्य है-यह बिना किसी अन्य प्रमाण की सहायता के निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। - इसके अतिरिक्त यदि जीत से भिन्न दूसरे आगम, श्रुत, आशा और धारणा में से किसी अन्य प्रमाण को भी प्रकृत अर्थ की साधकता होती तो उसका प्रदर्शन न कर सब से कनिष्ठ इस जीत नामक प्रमाण का ही प्रदर्शन क्यों किया जाता ? इस लिये इस प्रमाण का अवलम्बन करना ही बताता है कि इससे भिन्न कोई प्रमाण इस अर्थ को सिद्ध करनेवाला नहीं है, तो फिर " अपि" शब्द से प्रमाणान्तर के भी अस्तित्व की सूचना करना क्या एक प्रकार की वञ्चना नहीं है ?
इसी पृष्ठ में विजयदेवसूरि की सामाचारी के जीतव्यवहारसिद्धत्व में प्रमाण बताने की भी चेष्टा की गई है, इस विषय में भी यह प्रश्न खडा होता है कि किस सामाचारी को विजयदेवसूरि की सामाचारी के रूप में ग्रहण कर उसकी जीतव्यवहारसिद्धता को प्रमाणित करने में पताकाकार सोद्योग हैं । तिथ्यादि के निर्णयार्थ प्रमाणरूप से जैनसंघ द्वारा स्वीकृत टिप्पण के विरुद्ध पर्वतिथि के क्षय और वृद्धि के बदले पूर्व की अपर्वतिथि का क्षय और वृद्धि मानने तथा पर्वोत्तरपर्वतिथि के क्षय और वृद्धि के प्रसंग में पूर्व की पर्वतिथि के टिप्पणोक्त समय से अतिरिक्त समय में उसकी आराधना करने को अथवा इससे अतिरिक्त किसी अन्य आचार को ? यदि अन्य आचार को, तो उसमें जीतव्यवहार-सिद्धता प्रमाणित करने का कोई प्रकृत में उपयोग नहीं है । और यदि पहले आचार को लें, तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि उसमें विजयदेवसूरि की ૧૪
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