________________
૧. લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયને સમર્થક શ્રી અહતિથિભાસ્કર ] वृद्धि को मान्यता देने का क्या आधार है ? इस प्रश्न के उत्तर में “मतपत्रक" का वक्तव्य है कि जैनटिप्पण को पर्व-तिथियों की वृद्धि मान्य नहीं है, पर इस से प्रश्न का ठीक समाधान नहीं होता, क्योंकि प्रश्न का आशय यह है कि इस समय जैन-टिप्पण प्रचलित नहीं है, जो प्रचलित है उसमें पर्व-तिथि की वृद्धि का निर्देश मिलता है, ऐसी दशा में प्रचलित लौकिक टिप्पण को प्रमाण मानना चाहिये या नहीं? यदि प्रमाण माना जायगा तो उसे सर्वांश में ही प्रमाण मानना होगा, अन्यथा एक अंश में अप्रमाण होने पर उसी दृष्टान्त से शेष सभी अंशो में भी अप्रमाणता की सम्भावना खड़ी होगी, और यदि उसे प्रमाण न माना जायगा तो तिथि आदि के निर्णय का कोई दूसरा उपाय न होने से तिथ्यादिमूलक धर्मानुष्ठान का लोप हो जायगा ।
पर्वतिथि की वृद्धि और क्षय के विषय में लौकिक टिप्पण को अप्रमाण मानने पर यह भी प्रश्न उठ सकता है कि क्या पता कि जैन-टिप्पण आज यदि प्रचलित रहता तो पर्वतिथि का ठीक उसी दिन निर्देश करता जिस दिन कि वर्तमान टिप्पण कर रहा है अथवा उसके पहले वा बाद वाले दिन करता, और ऐसे प्रश्न को अवसर देने का सुनिश्चित परिणाम होगा तिथ्यादिमूलक आराधना का लोप । अतः लौकिक टिप्पण को अन्यतिथियों की भाँति पर्व-तिथियों की भी वृद्धि और क्षय आदि में प्रमाण मानना ही होगा । फिर ऐसी स्थिति में पूर्णिमा की टिप्पणोक्त वृद्धि को अस्वीकार कर के त्रयोदशी की वृद्धि मानने का निमित्त क्या? इस प्रश्न का उत्तर “मतपत्रक" के उस वक्तव्य से कैसे हो सकता है?
श्रीसागरानन्दसूरि के सम्प्रदाय में-पूर्णिमा की वृद्धि के प्रसंग में जब दूसरे दिन पूर्णिमा मानी जाती है तो चतुर्दशी और पूर्णिमा का व्यवधान मिटाने के उद्देश्य से चतुर्दशी को वास्तविक स्थान से खींच कर पूर्णिमा के टिप्पणानुसार पूर्व दिन में रख दिया जाता है और त्रयोदशी की वृद्धि मान ली जाती है। तिथियों के इस निराधार तोड मरोड पर जो प्रश्न उठता है उसके तीन अंश हो सकते हैं । (१) पूर्णिमा और चतुर्दशी के व्यवधान को दूर करने की आवश्यकता क्या? (२) दो-चतुर्दशी मानकर द्वितीय चतुर्दशी के द्वारा चतुर्दशी और पूर्णिमा का अव्यधान सम्मत क्यों नहीं ? (३) दो त्रयोदशी मानने का आधार क्या ? ___ “मतपत्रक" में प्रश्न-कर्ता ने प्रश्न के पहले अंश की चर्चा न कर दूसरे दो अंशो की वर्चा की है । उत्तर में जो कुछ कहा गया है उससे उपर्युक्त दृष्टि से तो किसी अंश का ठीक समाधान नहीं होता पर तीसरे अंश का तो किञ्चिन्मात्र भी उत्तर नहीं मिलता। इस लिये उठे हुये प्रश्न का उत्तर देने में अपूर्ण और असमर्थ होने के कारण “मतपत्रक" आदरणीय नहीं हो सकता। ___ “मतपत्रक" जिस बात को कहना चाहता है, उसमें कोई युक्ति वा प्रमाण नहीं रखता और पदि किसी प्रमाण का निर्देश करने की चेष्टा भी करता है तो उसे सचाई और सफाई के साथ निर्दिष्ट न कर एक प्रकार से वञ्चना करना चाहता है, अतः वह प्रमाण-रूप से ग्राह्य न हो सकता।
टिप्पण में पूर्णिमा की वृद्धि का निर्देश मिलने पर दूसरे दिन पूर्णिमा, पहले दिन चतुर्दशी और उसके पूर्व के दो दिनों में त्रयोदशी मानने की बात तो “मतपत्रक" ने कह दी और " उत्सूत्रप्ररूपणेन” इस शब्द से यह भी कह दिया कि पूर्णिमा की वृद्धि के प्रसङ्ग में त्रयोदशी की वृद्धि के विरुद्ध सोचना उच्छृखलता है, पर इन बातों के समर्थन में कोई युक्ति वा प्रमाण नहीं बताया । “ यथावदागमानुसारेण" कह तो दिया, पर वह कौन सा आगम है, यह नहीं बताया । “वृद्धपरम्परया" कह तो दिया पर इसकी चिन्ता नहीं की कि श्रीविजयदेवसरि के समय वा उनके पूर्व इस प्रकार की परम्परा का अस्तित्व सिद्ध करने के लिये कोई प्रमाण भी होना चाहिये।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org