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________________ ૧. લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયને સમર્થક શ્રી અહત્તિથિભાસ્કર ] पर्व-प्रवत्ति न मानने पर तिथि-वद्धि का ज्ञान न होने के कारण “वद्धौ कार्या" इस वचन की प्रवृत्ति ही नहीं हो सकती । दूसरी बात यह है कि पताका के नवें पृष्ठ में “वृद्धौ कार्या" इस वचन की व्याख्या करते हुये पताकाकार ने इस वचन की प्रवृत्ति के पूर्व टिप्पण की प्राप्ति मानी है और अब यहां ग्यारहवें पृष्ठ में टिप्पण की प्रवृत्ति के पूर्व उक्त वचन की ही प्रवृत्ति को मान्यता दे रहे हैं । इससे पाताका-लेखक का महान् प्रमाद सूचित होता है। ___ अब "वृद्धौ कार्या तथोत्तरा” इस उत्तरार्ध की दूसरी व्याख्या का खण्डन किया जायगा___ पाताकाकार ने पताका के ग्यारहवें पृष्ठ में उक्त वचन की दूसरी व्याख्या करते हुये कहा है कि "वृद्धौ कार्या" यह वचन वृद्धा तिथि में दोनों दिन पाक्षिक रूप से प्राप्त पर्वतिथित्व का पहले दिन प्रतिषेध करने के निमित्त दूसरे ही दिन उस तिथि के औदयिकीत्व का अथवा पर्वतिथित्व का ही नियमन करता है । किन्तु यह कथन युक्त नहीं है, क्यों कि वृद्धा तिथि में जब पहले दिन भी अष्टमीत्व, चतुदर्शी आदि धर्मों में से अन्यतम धर्म और औदयिकीत्व धमान है तब उस दिन उसके पर्वतिथित्व का अपलाप नहीं किया जा सकता, कारण कि विधि, निषेध वा उसका संकोच उसी वस्तु में सम्भव है जो पुरुष के प्रयत्नाधीन हो, अतः उक्त वचन का तात्पर्य यही मानना होगा कि एक वृद्धा तिथि दोनों दिन पर्वतिथि रूप होते हुये भी दूसरे दिन ही आराध्य होती है । इस प्रकार यह वचन पुरुषाधीन आराधना का ही पहले दिन प्रतिषेधक और दूसरे दिन नियामक है न कि पुरुषासाध्य औदयिकीत्व वा पर्वतिथित्व का । ___इसी प्रसंग में वृद्धा तिथि में पर्वतिथित्व की पाक्षिक प्राप्ति बतला कर दूसरे दिन-मात्र औदयिकीत्व के नियमन में उक्त वचन का व्यापार है-यह पताकाकार का कथन उनके विचित्र मीमांसकत्व का सूचन करता है क्योंकि " पाक्षिक प्राप्ति किसी दूसरे की और नियमन किसी अन्य का" यह गोप्य ज्ञान उन्हीं को गुरु-सेवा के महान् तप से प्राप्त है। दूसरे मीमांसक तो यही जानते हैं कि जिसकी पाक्षिक प्राप्ति होती है उसीका नियमन होता है। यदि कहें कि औयिकीत्व का नियमन फलतः पर्वतिथित्वके नियमन में पर्यवसन्न होता है अतः औदयिकीत्व का नियमन मानने में कोई दोष नहीं है तो यह भी ठीक नहीं है ।, क्यों कि पाक्षिक-प्राप्त पर्वतिथित्व की साक्षात् नियामकता सम्भव रहने पर उसका त्याग कर औदयिकीत्व के नियमन से उसका नियमन मानना निरर्थक और निर्बीज है। - वृद्धा तिथि दूसरे दिन ही औदयिकी है और पहले दिन अनौदयिकी है यह पताकाकार का कथन इस प्रश्न को पुनः प्रस्तुत कर देता है कि पहले दिन भी पञ्चाङ्ग के अनुसार औदयिकी अष्टमी आदि को उस दिन अनौदयिकी बतलाने पर " वृद्धौ कार्या” इस वचन के प्रामाण्य की रक्षा नहीं हो सकती, क्योंकि उक्त वचन धर्मशास्त्रात्मक होने पर भी गणितज्योतिष के तिथि प्रवेश आदि विषयों में उससे विपरीत बताने की क्षमता नहीं प्राप्त कर सकता । इसी प्रकार वृद्धा तिथि के पूर्व की अपर्वतिथि की वृद्धि-कल्पना भी इस पुराने प्रश्न को पुनः खडा कर देती है कि पहले दिन वृद्धा तिथि की आराधना की आपत्ति का वारण करने के लिये उस दिन उसके अनौदयिकीत्व की कल्पना तो कथंचित् सार्थक हो सकती है पर उस दिन पूर्व की अपर्वतिथि को औदयिकी मानने की क्या आवश्यकता है? _ 'पताका' के बारहवें पृष्ठ में अङ्कित “एवं सति यन्मध्यस्थेन” यहां से लेकर “ मध्यस्थस्य कथमुपादेयकोटिमारोहेत्” यहां तक के वाक्य में 'यन्मध्यस्थेन' और मध्यस्थस्य” इन दोनों शब्दों का किसके साथ अन्वय है तथा उनका क्या समन्वय है, एवं कौनसा वाक्य-सौन्दर्य है? यह बात पताकाकार जैसे विचित्र वाक्यकार को ही ज्ञात हो सकती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005673
Book TitleTithidin ane Parvaradhan tatha Arhattithibhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Pravachan Pracharak Trust
PublisherJain Pravachan Pracharak Trust
Publication Year1977
Total Pages552
LanguageGujarati, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size15 MB
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