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૧. લવાદી ચર્ચામાં આવેલા નિર્ણયને સમર્થક શ્રી અર્વતિથિભાસ્કર ]
हमारे उपर्युक्त वक्तव्य का आशय यह नहीं है कि आचार्य उमास्वाति को उच्चकोटि के गणित का अच्छा ज्ञान नहीं था । अथवा उनकी तपस्या में कोई न्यूनता थी। हमारे कथन का तात्पर्य तो इतना ही है कि उक्त वचन का कथित अर्थ ही आचार्य को अभीष्ट है इस में कोई प्रमाण नहीं है । इसलिये यह असन्दिग्ध रूपसे कहा जा सकता है कि टिप्पण में दो दिन औदयिकी रूप से निर्दिष्ट तिथि को पहले दिन अनौदयिकी होने की घोषणा करने पर उक्त वचन की अप्रमाणता अपरिहार्य है । सिद्धान्त पक्ष में उक्त वचन की प्रमाणता का रक्षण कैसे होगा यह बात सिद्धान्त पक्ष के निरूपण के समय बतायी नायगी। ___ यदि कहा जाय कि टिप्पण के अनुसार प्रथम दिन भी वृद्धा तिथि का औदयिकीत्व इष्ट है किन्तु आराधनोपयोगी जो पारिभाषिक औदयिकीत्व है वह “वृद्धौ कार्या तथोत्तरा" इस वचन के अनुसार पहले दिन न हो कर दूसरे ही दिन है, ऐसा मानने में टिप्पण वा तन्मूलभूत गणितज्योतिष का उक्त वचन के साथ कोई विरोध भी नहीं है, तो यह कथन भी असंगत है, क्यों कि पारिभाषिक औदयिकीत्व का स्वरूप बताये बिना उस प्रकार की बात कहना अनुचित होगा। एवं पारिभाषिक औदयिकीत्व के एक ही दिन दो तिथियों में सम्भव होने के कारण पर्वानन्तर पर्वतिथि के क्षय के प्रसङ्ग में दिन भेद से तिथिद्वय की आराधना की व्यवस्था करना भी असंगत होगा। __इस प्रसंग में पताकाकार ने जो यह बात कही है कि आराधना के अंग रूप से तिथि का विधान होने के कारण आराधना प्रधान तथा तिथि गौण है। और प्रधान को गौण का अनुगमन करना ठीक नहीं है। अतः तिथि की वृद्धि के कारण आराधना का दो दिन अनुष्ठान अप्राप्य है । वह ठीक नहीं है, कारण कि पर्वतिथि आराधना का निमित्त और आराधना नैमित्तिक मानी गयी है । अतः नैमित्तिक को निमित्त का नियत अनुगामी होने के नाते जैसे पर्वतिथि के किसी एक दिन औदयिकी होने पर उस दिन तन्मूलक आराधना मानी जाती है वैसे ही पर्व तिथि के दो दिन औयिकी होने पर दो दिन तन्मूलक आराधना की प्राप्ति अनिवार्य है।
ऐसा मानने पर ही पहले दिन वृद्धा तिथि के औदयिकीत्व का प्रतिषेध कर दूसरे दिन मात्र उसके औदयिकीत्व के व्यवस्थापन का प्रयास भी सफल हो सकता है, अन्यथा यदि आराधना तिथि का अनुविधान न करे तो पहले दिन भी वृद्धा तिथि को औदयिकीत्व मानने पर उस दिन आराधना को प्राप्ति रूप दोष न होने के कारण उक्त प्रयास की निरर्थकता अपरिहार्य है। ___यदि कहें कि आराधना को तिथि की अनुगामिनी मानने पर वृद्धा तिथि की दो दिन आराधना की अवश्य कर्तव्यता अनिवार्य होगी, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि “वृद्धौ कार्या तथोत्तरा" इस वचन से पूर्व-दिन आराधना का परिसंख्यान कर दूसरे दिन-मात्र उसके अनुष्ठान की व्यवस्था की गयी है। आराधना की पाक्षिक प्राप्ति होने पर ही उसका परिसंख्यान मान्य हो सकता है, यहाँ तो उसकी पाक्षिक प्राप्ति है नहीं क्योंकि वृद्धा तिथि दो दिन औदयिकी है अतः दोनों दिन आराधना प्राप्त है, इस लिये आराधना की परिसंख्या मानना अयुक्त है। यह शंका भी उचित नहीं है, क्यों कि “एक पर्व तिथि एक ही दिन औदयिकी होती है" जैनजगत् की इस प्रसिद्धि के अनुरोध से जैसे वृद्धा तिथि के औदयिकीत्व की पाक्षिक प्राप्ति मान कर उसके परिसंख्या-पक्ष का समर्थन किया जाता है । वैसे ही " एक पर्वतिथि की आराधना एक ही दिन होती है " इस जैनसंघ की प्रसिद्धि के अनुसार वृद्धा तिथि की आराधना की भी पाक्षिक प्राप्ति का समर्थन कर आराधना की परिसंख्या का भी प्रमाणीकरण हो सकता है। पताका के ग्यारहवें पृष्ठ में पताकाकार ने आराधना की पाक्षिक प्राप्ति स्वीकार भी की है।
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