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________________ स्वस्ति श्री पुष्कलावती, पुंडरीगिणी हो नगरी शुभ स्थान; सर्व उपमाने योग्य छो केवळदी हो जो रे केवळज्ञान. सु० २ आठ प्रतिहार ज शोभता अतिशय हो मोटा चोत्रीश; (३४) इंद्रादिक नित्य पूजता जीत्या हो जे रागने रीस. तत्र श्री सीमंधर प्रभु, करुणासागर हो मोटा कृपाळ; अधम उद्धारण साहिबो, जगबंधव हो जग दीनदयाळ... सु. ४ भरतक्षेत्रना संघनी, वंदना होजो हो एक हजारने आठ; तुम कृपा अत्र कुशळ छे, दर्शनथी हो होसे अधिको ठाठ. सु. ५ कागळ हुंडी पैठने, परपेठ हो लखी मेली अनेक; तेनो उत्तर मळ्यो नहीं, केम कीधी हो ! प्रभु ढील विशेष. सु०६ ते कारण लखवू पडयु, मेझर नामुं हो मने आ वार; आगळ रीत नहीं लोकमां, देनो हो प्रभु एने सीकार. ढाळ १ लीनो तात्पर्य-वीतराग प्रभुने हमेशां वीनती करवी अने वन्दना करवी. • दुहा. अनंत कल्याणी संघ छे, संघथी वडो न कोय; समोसरण बिराजतां, नमस्कार करे तोय. हुँ पण संघने नमी करी, कहुं मननी वात; तोपण कोइ न सांभळे, तुं जाणे जगतात. ओछो कोठो तुच्छ मति, नहीं समावे नाथ; कहुं भरतनी वारता, सांभळ कृपाळु नाथ. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.005581
Book TitleMajernamu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherRatna Prabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year
Total Pages144
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size8 MB
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