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(४) ॥ १७ ॥ पांचमे बठे एकवीश एकवीश, सहस्स वरस वखाणो जी ॥ बार जोयण ने सात हायनो, तदा वि मल गिरिजाणोजी ॥ २० ॥ तेह जणी सदा काल एती रथ, शाश्वतुं जिनवर बोले जी ॥ रुषजदेव कहे पुं मरिक निसुणो, नहिं कोई शत्रुंजय तोले जी ॥ २१ ॥ ज्ञान ने निर्वाण महाजस, लेहेशो तुमें इस में जी ॥ एह गिरितीरथ महिमा इ जगें, प्रगट हो शे तुम नामें जी ॥ २२ ॥
॥ ढाल चोथी ॥ जिनवरशुं मेरो मन ली नो ए ॥ ए देशी ॥
॥ सांगली जिनवर मुखथी साधुं, पुंमरिक गण धार रे | पंचकोनी मुनिवरशुं इणगिरि, अणस की ध उदार रे ॥ २३ ॥ नमो रे नमो श्री शत्रुंजय गिरि वर, सकल तीर्थमांहे सार रे ॥ दीवो दुर्गति दूर निवारे, ऊतारे जवपार रे ॥ २४ ॥ नमो० ॥ केवल लही चैत्री पूनम दिन; पाम्या मुक्ति सुगम रे ॥ तदा कालथी पुहवी प्रगटीयुं, पुंमरिक गिरिनाम रे ॥ २५ ॥ ॥ नमो० ॥ नयरी अयोध्याथी विहरता पहोता, ता
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