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( १० ) सो प्रशंस्यो घणु, नाम अजवायुं पूर्वज तं ॥ जरत तणीपरें संघवी थयो, बीजो उद्धार ते एहनो कह्यो, ॥ ६० ॥ जरतपाटें ए आठे वली, नुवन खरी शामां केवली ॥ इणे आठे सवि राखी रीत, एक न लोपी पूर्वजरीत ॥ ६१ ॥ एकसो सागर वोल्या जि सें, ईशानेंद्र विदेहमां तिसें ॥ जिनमुख सिद्धगिरि सु णी विचार. तेणें कीधो त्रीजो उद्धार ॥ ६२ ॥ एक को मी सागर वोली गयां, दीगं चैत्य विसस्थल थयां ॥ माहिंड चोथो सुरलोकेंद्र, कीधो चोथो उद्धार गिरीज ||६३ ॥ सागर कोमी गया दश वली, श्री ब्रह्मेद्र घणुं मन स्ली ॥ श्री शत्रुंजये तीर्थ मनोहार, कीधो तेणें पांच मो उद्धार ॥ ६४ ॥ एक कोमी लाख सागर अंतरें, चमरेंद्रादिक जवन उद्धरे ॥ बहो इंद्र जवनपति तणो, ए उद्धार विमल गिरि जणो ॥ ६५ ॥ पचाश कोडी लाख सागर तणुं, आदि अजित विच्चें अंतर जणुं ॥ तेह विचें सूक्ष्म हुवा उद्धार, ते कहेतां नवि लाने पार, ॥ ६६ ॥ हवे अजित बीजो जिनदेव, श त्रुंजय सेवा मिष देव || सिद्धक्षेत्र देखी गह गह्या,
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