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(६५)
॥प्रातिविधे दोहा ॥ ॥प्रीतज एसी कीजिये, ज्यूं जल मत्स्य कराय॥ खिणेक जलथी बीउडे, तडफडीने मरि जाय ॥१॥ मने साधजो प्रीतडी,नथि मिलवानो संच ॥सरज्या विण नवि संपजे, करियें कोडि प्रपंच ॥ ॥ नयणां केरी प्रीतडी, जो करि जाणे सोई॥ नयणे जेरसऊ पजे,ते रस सेज न हो ॥३॥प्रीति नली पंखेरुयां, जे जोडिनें मिलंत ॥ पंख विहूणां माणसां,अलगाथी विलवंत ॥४॥ नयण पदारथ नयण रस, नयणे न यण मिलंत ॥ अणजाण्याशुं प्रीतडी, पहेला नयण करंत ॥ ५॥ कीजें प्रीति सुमाणसां, जे जाणे गुण नेथ ॥ सूखड पबरशुं घसी, तोह न अप्पे ॥६॥ प्रीति रीति कलु और है, मुखतें कही न जाय॥मि शरी खाई मूक सो, कहै कहा दरसाय ॥७॥प्रीति सर्वसें राखियें, करहु न कहुँ बिगार ॥ जैसें सहाव लींब रस, मिलत सकलमें धार ॥ ७ ॥ प्रीति बहुत प्रकारकी, तिनमें गहियें शुङ॥काज न बिगरे जाहि तें, को कहै न अशुफ ॥ ए॥ इति ॥
॥ अथ शीखामणना बोलो प्रारंजः ॥ १ श्ष्टदेवनुं ध्यान मनमां धर. २ देशना धणीनी
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