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(४५) आपणा शिष्यनी जीत कीधी ॥ वाजीयां तूर नीसाण घूयां घणां, अमरने मावडे ख्याति लीधी ॥ मा० ॥ ॥१५॥लाज वाधी घणी जगत धूंबड तणी, बोल श्र रियां तणो हर्ज मागे॥ए थ ढाल जिनहर्ष उंगणीश मी, नासतां शिर चड्यो कृष्ण चागे ॥मा॥१६॥
॥दोहा॥ ॥ व्यंतर तास सखाश्यो, कुमर लह्यो जसवाद ॥ अचरिज सहुनें ऊपनो, एकण कस्यो उन्माद ॥१॥ बूंबड तो एकलो हुतो,कटक थयो परगट्ट ॥ दीगे न हिं केणे श्रावतो, जातो नहीं पण दी ॥२॥ एतो कोश्क देवता, के विद्याधर को॥के कोश्क योगी बे, जांखा नरपति हो ॥३॥ राज देशना मूत्रा घ णा, एनो न मूड को॥ अमरसेन मनमां श्स्यो, खेद करंतो जोश ॥४॥ ततःण कुमर कायाथकी, चर्म उतास्यो जाम॥जयसेन रूप प्रगट थयुं, हा सहुको ताम ॥५॥ ए विद्या शीख्यो किहां, अहो कुमर वडवीर ॥संग्राम कीधो एटलो, तुं तो साहस धीर ॥६॥ लागो पाये तातनें, खमजो अविनय मु ज॥श्रालिंगन देपूड़ीयो, मली विद्या किहां तुज ॥७॥ कयु वृत्तांत सहु मूलथी, खुसी थयो सुणी
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