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(३४) घलावीयो रे ॥२॥ लोह ढांकणे ढांकी रे, राख्यो में बांकी रे, एह वात में पांकी जीवलहं हां रे ॥ एम वात विचारी रे, प्रतीतिनाकारी रे, तिण पास संजारी राख्या नर तिहां रे ॥३॥ अन्यदा तिहां आई रे, कुंनी उखेलाईरे, किहांसुद्ध न पाई खामी जीवनी रे ॥ नर दीगे मूठ रे, किहां बिउ न हुई रे, तो जीवने जुलं किम जाणु मुनी रे ॥४॥ जो जीव समायो रे, वली बाहिर आयो रे, को बिउ न पायो कुंजीमां कहुंरे॥ नीकल्यो किण घारें रे, कोश विवर न सारे रे, तो किण प्रकारेंजीव जू लहुं रे ॥५॥ जो कुंजीमां कोई रे, बिअरेखा होई रे, तो तेहने जोई जीव जू कहुं रे॥तिहां विवर जो देखें रे,तो जीवने लेखु रे,श्म चित्त विशेषे जीवने सद्दडं रे ॥६॥ जूश्रा जीवने काया रे, नहीं एकज माया रे, पण बिन पाया कुंनीमां किहां रे ॥ तिण कारण साची रे,मति माहरी जाची रे, ए काया ले काची जीव न को शहां रे ॥७॥ सिंधूडे रागें रे, त्रीजो प्रश्न ए जागें रे, हवे सांजलो श्रागें, उत्तर गुरु कहे रे ॥ ज्ञानचंद इंम नांखे रे, सूधा सूत्रनी साखें रे, सूधा सदगुरुपाखें नेद किश्यो बहे रे॥॥सर्गगाथा॥३६१॥
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