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(१४) ॥१०॥स०॥ प्रगट होशे जलकांतमय जी, पर्वत जलअस्पृष्ट ।। कूप ले तेनी नपरें जी, स्वाऽवंत जल मिष्ट ॥ ११ ॥ स ॥ परंपरायें सांजव्यु जी, वलीले शास्त्र मकार ॥ यानपात्र थापी करी जी, तिहां ज लीजें वारि ॥१२॥स०॥ निर्यामक वाणी सुणी जी, खुशी श्रया सदु लोक ॥ कहे जिन हरख का श्श्यु जी, पांचमी ढाल विलोक ॥ १३ ॥ स ॥ स वैगाथा ॥ १११॥
॥दोहा॥ पण एक महानय ने इहां, नमरकेतु णें ना म ॥ राक्षस रहे ने दीपमा, तेहy ले ए गम ॥१॥ सहस उ सय कोणप रहे, रात दिवस ते पास ॥ मा हामांस जहण करे, क्रूर अधिक नवास ॥२॥समु
देवता तेहने, शपथ कराव्यो एह ॥ तेतो तीर्ण न कृप करे, प्रवहण तजवा तेह ॥३॥ निज इजायें ते रहे, वचन सुण्यां श्रवखेह ॥वात करंतां एटले, प बत प्रगव्यो नेह ॥४॥ लोकें कूप निहालियो, प स.सदसनीनीति ।। तरष्या पण बेसी रहा, वाह शमां चलचिच.॥५॥............... ... ..
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