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४६ आनंदघनजी कृत पद. उद्यम कीयो हो, मेट्यो पूरव साज ॥ प्रीत परमसुं जोरिकें हो, दीनो आनंदघन राज॥ वि०॥॥ इति ॥
॥पद अग्याशीमुं॥राग धमाल ॥ ॥ पूजीयें पाली खबर नहीं, आये विवेक वधाय ॥पू०॥ ए आंकणी॥महानंद सुखकी बरनीका, तुम
आवत हम गात ॥प्रानजीवन आधारकी हो, खेम कुशल कहो बात ॥ पू०॥१॥अचल अबाधित देवकू हो, खेम शरीर लखंत ॥ व्यवहारि घटवध कथा हो, निह. सरम अनंत ॥ पू० ॥ २ ॥ बंधमोख निहचें नही हो, विवहारे लख दोय ॥ कुशल खेम अना दिही हो, नित्य अबाधित होय ॥ पू० ॥ ३ ॥ सुन विवेक मुखतें नही हो, बानी अमृत समान॥सरधा समता दो मिली हो, व्याई आनंदघन तान॥पू॥४॥
॥ पद नेव्याशीमुं ॥ राग धन्याश्री॥ ॥चेतन सकल वियापक होइ॥ सकल॥चे॥ सत असत गुन परजय परनति, नाव सुनाव गति दोश् ॥ चे ॥ १ ॥ ॥ स्व पर रूप वस्तुकी सत्ता, सीके एक न दो।। सत्ता एक अखंम अबाधित,यह सिद्धांत परख होई॥ चे ॥ २ ॥ अनवय'व्यतिरेक हेतुको, समजी रूप चम खोई ॥ आरोपित सब धर्म
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