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यानंदघनजी कृत पद.
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जी ॥ ० ॥ ए यांकणी ॥ थिरता एक समयमें ठाने, उपजे विसे तबही ॥ उलट पलट ध्रुवसत्ता राखे, या हम सुनी न कबही ॥ ० ॥ १ ॥ एक अनेक अनेक एक फुनी, कुंमल कनक सुनावें ॥ जलतरंग घटमाटी रविकर, अगनित ताहि समावे ॥ श्र० २ ॥ है नांही है वचन अगोचर, नय प्रमाण सत्तनंगी ॥ निरपख होय लखे कोई विरला, क्या देखे मत जंगी ॥ श्र० ॥ ३ ॥ सर्वमयी सरवंगी माने, न्यारी सत्ता जावे ॥ आनंदघन प्रनु वचनसुधारस, परमारथ सो पावे ॥ ० ॥ पद बहुं ॥
॥ साखी ॥ श्रातम अनुभव रसिकको, जब सुन्यो विरतंत ॥ निर्वेद वेदन करे, वेदन करे अनंत ॥ १ ॥ ॥ राग रामग्री ॥
॥ माहारो बालुडो संन्यासी, देह देवल मठवासी ॥ मा० ॥ १ ॥ ए झांकणी ॥ इमा पिंगला मारग त जयोगी, सुखमना घर वासी ॥ ब्रह्मरंध्र मधि यास न पूरी बाबु, अनहद तान बजासी ॥ मा० ॥ २ ॥ यम नियम आसन जयकारी, प्राणायाम अन्यासी ॥ प्रत्याहार धारणाधारी, ध्यान समाधि समासी ॥ मा हा०० ॥ ३॥ मूलउत्तरगुण मुाधारी, पर्यकासन वासी ॥
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