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(२१) ला ॥ १०॥ राजसागर सुख संपदा ॥ म ॥ रचि यो ए अधिकार ॥ ला॥डो अधिको नारखीयो । म० ॥ मिजामि मुक्कड कार ॥ला ॥११॥ मानसा गर सुखसंपदा ॥ म ॥ जितसागरगणि शिष्य ॥ ला० ॥ साधु तणा गुण गावतां ॥ म०॥ पूगी मन ह जगीश ॥सा॥१२॥ नवमी ढाल सोहामणी ॥ म ॥ गोडी राग सुरंग ॥सा० ॥ मान सागर क हे सांजलो ॥ म० ॥ दिन दिन वधते रंग ॥ ला॥ ॥१३॥ इति श्रीशील विषयिक मानसागरगणिविर चित कान्हडकठियारानो रास समाप्त ॥
॥ अथ ॥ ॥ श्रीमयणरेदानो रास प्रारंन॥
॥ दोहा ॥ ॥ जूआ मांस दारु तणी, करे वेश्यागुं जोष ॥ जीवहिंसा चोरी करे, परनारीनो दोष ॥ १ ॥
॥ ढाल ॥ अनाथीनी वैरागी देशीमां ॥ ॥ व्यसन सातमुं परनारीनु,प्रत्यक्ष पाप दीखायुं ॥ रावण पदमोत्तर मणिरथ राजा, तीनुं राज गमायु
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