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पंचमःसर्गः वली ज्ञानी अने पुस्तकोनी अन्न वस्त्रादिकथी करेली सेवा सूर्यनी कांतिनी पेठे प्राणीउनी जडतानो नाश करे . ज्ञानपूजाश्री ज्ञानावरणीय कर्मोनो नाश थर, मुक्तिलक्ष्मीनां कारणरूप केवलज्ञान प्राप्त थाय बे. वली था शत्रुजय तीर्थपर जिननी पूजानी पेठे ज्ञाननी पूजा पण प्राणीउने बेक मोदसुधिनुं अधिक अधिक फल आपे . वली था तीर्थमां रात्रिजोजन करवाथी माणस गीध, घुबड, प्रमुख नवो पामीने अत्यंत पुःखी थयो थको नरकमां जाय . सदा रात्रिनोजनमां तत्पर रहेला एवा श्रपवित्र माणसे था तीर्थनो कोश् पण वखते स्पर्श पण करवो लायक नथी. वली था तीर्थमां रहीने जे माणसो सम्यक्त्वमूल बार व्रतोने पाले , तेनां तुख्य बीजो को धन्य नथी, तथा ते मोदमां जाय . वली अन्य तीर्थमां जप, तप, तथा दानथी जे फल थाय बे, तेथी क्रोडगणुं फल श्रा तीर्थनां स्मरणथी पण थाय . वली था तीर्थमां जे माणस रथ, घोडा, जमीन, हाथी, सुवर्ण तथा मणिनी नेट आपे , ते हर्ष सहित चक्री. पणाने तथा अपणाने नोगवे बे. वली जे माणस था तीर्थमां इंस्रोत्सवादि कार्य करे , ते सघला नोगो जोगवीने निश्चयें करी मोक्ष मेलवे बे. वली हे पुंडरिक ! सघला तीर्थोमां था तीर्थराज , तथा सघला पवतोमां ते उत्तम पर्वत बे; माटे जेम मने, तेम मोदनां कारणरूप था गिरिवरने तुं सेव ? वली हे मुनि! माराथी जेम था जगतनी स्थिति, तेम तारा नामथी आ अवसर पिणीमां या तीर्थ प्रसिद्धि पामशे. वली नहीं बलथी तेम नहीं अनन्यासथी, तेम इंजिउने तथा मनने रोधिने तुं यहीं रहे ? स्फटिकसरखा निर्मल श्रात्माने त्रण ध्यानोथी (पिंडस्थ, पदस्थ, श्रने रूपस्थथी) ध्यावतां थकां, अने कं पण चिंता रहित आश्रव परिणामने रोकीने, विकल्प रहित लयमां प्राप्त थर, पांच हख अक्षरोनां उच्चारनां परिमाणवाला कालमां शुजाशुजनो नाश करी, तथा घातिकोने बालीने, अने केवलज्ञान पामीने, श्राज तीर्थनां माहात्म्यश्री तुं मुक्तिरूपी स्त्रीनो खामी थश्श. एवी रीते पुंडरिक महामुनिने कहीने नगवान पण त्रिलोकनां हितनी श्वाथी बीजी जगोये विहार करी गया. पड़ी त्रणे लोकमां रहेनारा लोको पण तेवीरीतनां सर्वज्ञ प्रजुनां वचनने सांजलीने आनंद सहित, तीर्थमां अनुराग धरता थका पोतपोताने स्थानके गया,
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