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श्री महावीर विनती
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नगरु तां वढवाण विशेषियइ, चलीय ए पीरु जिणेश्वर देखियह; अमीय ए फिर हेम कचालडइ, मिलिउ माणिक कांचन मुंद्रडइ. १ नगरन गुरु ए पुरु तइ करी, मन रहिउ विरु पाषिति तु फरी; मिरषतां तुझ रूप नितू नवू, किरुउ मूरष माणुसु हां कवउं? २ फडस जे पुण लेउ कपूरनी. किरणि चंद्र तणे किरी नीपनी; ईसीय मूरति देषिय निर्मली मन तणी हिव पूरिसु हउ रुली. ३ पग न पूजइ पूष्प तणी कली, जिन जिनेश नहालई तई वली; अमर पामर लेोक जई मिलिया, सवि सही भवसागर ते स्वलिय. ४ झगमगइ भुख पुनिमचंद्रमों, कमलकोमल तू नयनोपमा; विपुल बेउ कपाल निकासला हृदय देखीयु थाउ नवासला. ५ भुज बिन्हई पुर मोगल सिउ भिडी नखशिखा किर बेउल पांखडी; चरणचंगिम तू नितु जोई सिउ, अवर आसणु नस्थिअ जोई सिउ. ६ सकल विभ्रम टालीय वेगला, दई तिस्त कई तत्त्व तणी कला; जिम कषाय न आवड आसना, मनि वसई तुज्झ शासनवासना. ७ ॥ इति श्री जयशेखरसूरिकृता श्रीमहावीर वीनती ॥
[रचनाः वि. सं. १४१८]
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શ્રી સુરેશચંદ્ર કીર્તિલાલ
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