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________________ आचार्य-डॉ. शिव मुनि संपादकीय जैन वाङ्मय भारतीय इतिहास, संस्कृति, दर्शन और कला का अक्षय भण्डार है। शताब्दियों से इसने दर्शन-शास्त्रियों और मनीषियों को प्रभावित किया है। इसमें एक ओर तत्त्व दर्शन अर्थात्- जीव अजीवादि का विशद विवेचन उपलब्ध होता है तो दूसरी ओर इसमें ज्ञान, दर्शन और चरित्र की त्रिवेणी प्रवाहित हो रही है, जो प्राणी मात्र के लिए उपादेय है। इसमें जैन श्रमणों के तप-त्याग और जीवन-चर्या के साथ-साथ तत्कालीन आचार-प्रणालियों, विचार-पद्धतियों तथा अनेक मत-मतान्तरों का वर्णन भी उपलब्ध होता है। इनके अतिरिक्त भूगोल-खगोल, ज्योतिष-विद्या, राजनीतिक, पारिवारिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक प्रवृत्तियों का दिग्दर्शन भी करवाया गया है। जैनागम साहित्य लोकमंगल की भावना तथा मानवतावादी दृष्टि लेकर प्रवहमान हो रहा है। जब पाश्चात्य अस्तित्ववादियों ने यह स्थापना दी थी - 'Manisnothingelse but theensembleageofhis acts,nothingelse thanhis life.'अर्थात्मनुष्य का जीवन या अस्तित्व उसके कृत्यों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, तब हमारे आचार्यों तथा मनीषियों ने हमें इस से भी अधिक विकसित दृष्टि दी थी। उनका चिन्तन तथा साहित्य व्यक्ति चेतना से विकास पाता हुआ विश्वजनीन बन गया था। जैनागम साहित्य में भगवान् महावीर स्वामी द्वारा दिए गए उपदेशों, सन्देशों, देशनाओं तथा समय-समय पर दी गई टिप्पणियों को सुरक्षित रखा गया है। परन्तु आगम साहित्य को लिपिबद्ध करने का कार्य महावीर के निर्वाण के काफी बाद में हुआ। परम्परागत रूप से आर्हत वाणी को श्रुत रूप में, अर्थात् श्रवण कर सुरक्षित रखा गया था परन्तु श्रवण किया गया ज्ञान विस्मृत भी हो सकता है और इसमें परिवर्तन भी आ सकता है और बहुत सी महत्त्वपूर्ण दार्शनिक तथा चिंतन-धारणाओं की प्रामाणिकता संदिग्ध भी हो सकती है। इसी बात को दृष्टिगत रखकर तत्कालीन श्रमण संघ के नायकों ने आगम-ज्ञान को सुरक्षित रखने के लिए भागीरथ प्रयत्न किए। भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् आर्यसुधर्मा स्वामी ने श्रमण संघ का नेतृत्व किया और उसी परम्परा में संघ के नायक भद्रबाहु स्वामी बने।ये जैन धर्म में उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित थे और चौथी शताब्दी ई फू प्रथम चन्द्र गुप्त मौर्य के समय में विराजमान थे। भयंकर दुर्भिक्ष पड़ने के कारण ये दक्षिण की ओर चले गये थे। कहा जाता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य भी उनके साथ थे। श्रवण बेलगोल' से होते हुए उन्होंने 'कलवप्प' पर्वत पर अपना अन्तिम समय बिताया और वहीं समाधि पूर्वक शरीर का परित्याग
SR No.004497
Book TitleDashvaikalaik Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAatmaramji Maharaj, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages560
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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