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________________ इस पाठ का तात्पर्य यह है कि . . परधर्मी जैनेतर को यह जानकारी नहीं होती कि देव द्रव्यादि धर्म द्रव्य का भक्षण करने से बहुत पाप लगता है। इस कारण उनको देव द्रव्यादि का भक्षण करने में निःशुक्ता नहीं आती। अतः उनको ज्यादा किम्मत के. दागीने वगेरे के उपर देव द्रव्यादि की रकम ब्याज में देने में कोई दोष नहीं। लेकिन श्रावक को तो देव द्रव्यादि का भक्षण करने में बहुत ही बड़ा पाप लगता है" यह ज्ञान है अतः वह देव द्रव्यादि का भक्षण करे तो उसको निशुःकता आये बिना नहीं रहती इसलिए श्रावकोने अपने पास देव द्रव्यादि व्याजादि से नहीं रखना चाहिए। उसी तरह सुग वाले जैनेतर को भी व्याजादि कीम्मती दागीने लेकर भी देव द्रव्यादि द्रव्य उधार नहीं देना चाहिए। इस शास्त्र पाठ से यह निश्चित होता है कि कोई भो वहीवटदार श्रावक होवे या दुसरा कोई भी श्रावक होवे वह देव द्रव्यादि धर्म द्रव्य कीम्मती दागीने वगरे लेकर या बिना लिए ब्याज से नही रख सकता, यदि रने और उसके उपर स्वयं कमाए तो देव द्रव्यादि के भक्षण करने के दोष का भागीदार बनता है। वर्तमान काल को परिस्थिति भारे विषम है जो अतीव सोचनीय है। अंजन शला के प्रतिष्ठा महोत्सवादि के शुभ प्रसंगो में जगह-जगह पर लाखों रुपैये के चढ़ावे होते हैं।
SR No.004477
Book TitleDevdravyadi Vyavastha Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansuri
PublisherParshwanath Jain Shwetambar Mandir Trust
Publication Year
Total Pages72
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size5 MB
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