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________________ को आगरा शहरकी तरफ विहार करगये, उसका विचार पाठक आपही कर लेंगे. सं. 1979 ज्येष्ठ वदी 11 सोमवार. मुनि-मणिसागर इन्दोर. विजय धर्ममूरिजी की कपट बाजी. 1 पहिले मेरे साथ देवद्रव्य संबंधी शास्त्रार्थ करनेका * मंजूर किया था तब तो मैं सब बातों में योग्य था अब शास्त्रार्थ करने के समय अयोग्य कहते हैं. यह कैसी कपटबाजी है. ' 2. जब इन्दौर से फागण सुदी 10 के रोज पोष्टकार्ड लिखवा कर मेरे को बदनावर से शास्त्रार्थ के लिये इन्दोर जल्दी आनेका लिखवाया और उसमें शास्त्रार्थ के लिये नियम, प्रतिज्ञापत्र, मध्यस्थ वगैरह बातें दोनोंने मिलकर करलेने का लिखा था तब तो इन्दौर के संघकी सम्मति लेना भूलगये थे. अब मैं उनके लिखेप्रमाणे आया और शास्त्रार्थ करनेके लिये तैयार हुआ. जब अपनी प्रतिज्ञा मुजब शास्त्रार्थ की शक्ति नहीं हुई तब संघकी सम्मति लेनेकी आड लेते हैं यहकैसी कपटबाजीहै. 3 वैशाख सुदी 9 के रोज मेरेको अपने स्थानपर' शास्त्रार्थ करनेके लिये बुलाया था. जब मैंने व्यवस्था संभालनेके संबंध स्थानके ( मकानके ) मालिक की सही मांगी तब भिजवाई नहीं और आपनेभी सत्य निर्णय होवे सो ग्रहण करने वगेरह नियम मंजूर किये नहीं, चार ( 4 ) साक्षी बनाये नहीं, शास्त्रार्थ करनेवाले मुनि का नामभी बतलाया नहीं, सब बातों में चुपकी लगादी. फिर अब बोलते हैं हम तो शास्त्रार्थ के लिये तैयार थे. यह कैसी कपट बाजी है. ___4 वैशाख सुदी 15 के रोज फिरभी मेरेको अपने स्थानपर शास्त्रार्थ करने के लिये दूसरी वक्त बुलाया परंतु क्रोधमें भभक गये थे, अपनी मर्यादा बाहर होगये थे. तब मैंने सत्यग्रहण करने की व हारनेवाले को तीर्थ रक्षाकी शिक्षा करने वगेरह नियमोंकी सहीकेलिये पत्र भेजा सो
SR No.004449
Book TitleDevdravya Nirnay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJinkrupachandrasuri Gyanbhandar
Publication Year1917
Total Pages96
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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