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________________ आगम निबंधमाला हुए; उनके प्रति प्रेम, मैत्री, मध्यस्थ एवं अनुकम्पा भाव रखते हुए उनके उत्थान उत्कर्ष का चिंतन एवं सदभावना रखनी चाहिए। अपनी क्षमता की वद्धि करके सहृदयता एवं सद्व्यवहार आदि करते हुए अपने बुद्धि बल से ऐसे उपायों में प्रयत्नशील रहना चाहिए कि जिससे दूषित आचार वाले भी शुद्धाचार की ओर अग्रसर बने। शुद्धाचारी का आत्म विश्वास रखने वालों का यह भी परम कर्तव्य हो जाता है कि वे गिरे हुओं को ऊँचा उठावे किन्तु निन्दा तिरस्कार का एक धक्का और लगा कर उन्हें और अधिक गड्डे में गिराने की चेष्टा नहीं करें। . - शुद्धाचारी का आत्म विश्वास रखने वालों को अपने द्रव्य क्रियाओं और समाचारियों के साथ भाव संयम रूप नम्रता, सरलता, भावों की शुद्धि, हृदय की पवित्रता, सबके प्रति पूर्ण मैत्री भाव, अकषाय एवं अकलुष भाव तथा पूर्ण सोहार्द्र भाव रखना चाहिए / विचरण करते हुए किसी भी क्षेत्रों घरों और गहस्थों में ममत्व भाव नहीं बनावें, सर्वत्र निर्ममत्वी रहें / कहीं भी समकित और गुरुआमनाय की बाड़ाबंधी को लेकर मेरे गाँव, मेरे घर, मेरे श्रावक, मेरी समकित, मेरे क्षेत्र, मेरी छाप, मेरा प्रभाव और मेरा साम्राज्य इत्यादि इस मेरे-मेरे के चक्कर में पड़कर महापरिग्रही, महालोभी होकर एवं समाज में महा क्लेशों की जड़ रोपकर अशांत, सूद, तुच्छतापूर्ण, शंकीर्ण मानस का वातावरण तैयार न करे एवं स्वयं की आत्मा को भी महापरिग्रहवत्ति में नहीं डुबावे / किन्तु “एग एव चरे" इस आगम(उत्तरा.२)वाक्य को सदा स्मरण में रखें। पुनश्च :- सार यह है कि शुद्धाचारी को अपना घमण्ड न करते हुए अन्य शुद्धाचारी के प्रति तथा शिथिलाचारी के प्रति भी भावों को शुद्ध रखना चाहिए / और शिथिलाचारी को अन्य शिथिलाचारी के प्रति भावों को शुद्ध रखना चाहिए तथा शुद्धाचारी के प्रति हृदय में आदर, भक्ति भाव रखते हुए उनका यथोचित विनय व्यवहार करना चाहिए। निंदा अपयश किसी का भी नहीं करना चाहिए / ' 00000 [73 /
SR No.004412
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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