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________________ आगम निबंधमाला की ओट में कषाओं एवं इच्छाओं पर मुख्य रूप से आधारित है / यथा- स्वतंत्र संप्रदायो वाले परस्पर समय समय पर वदन व्यवहार कर लेते हैं और कभी तोड़ भी देते हैं / पूज्य श्रमणश्रेष्ठ बहुश्रुत श्री समर्थमलजी म.सा. श्रमण संघ के आचार्य सम्राट को सविधि वंदन कर लेते हैं एवं श्रुतधर श्री प्रकाश मुनि जी श्रमण संघ के प्रमुख श्रमण को अभिवादन वंदन कर सकते हैं और उन्हीं के श्रमण श्रावक उन्हें अवंदनीय कह देते हैं, यह एक अविचारकता है। सार- ये उक्त विचित्र व्यवहार मान कषाय और संकीर्ण मानस एवं स्वेच्छाओं के परिणाम है / दिखावा और बहाना आचार का किया जाता है किंतु एक. सरीखे आचार वालों में मनमुटाव या गच्छभेद हो जाय तो दोनों का आचार एक होने पर भी वंदन व्यवहार नहीं करते हैं तब उनके आचार सिद्धांत के बहाने की खुले रूप में पोल खुल जाती है कि ये अपने कषाय मात्र के कारण ही वंदन व्यवहार करते रहते है और छोड़ते रहते है यथा- ज्ञानगच्छ और समर्थगच्छ आदि आदि गच्छ। निर्ग्रन्थ प्रवचन जिनाज्ञा की आराधना के लिए तो उक्त समन्वयात्मक सूचनाओं की ही विचारणा करके परिपालना करनी चाहिए / निबंध-१२ दूषित आचार वालो को विवेक ज्ञान .. जिनके दोष लगाने में अपनी कोई परिस्थिति है, जिनके दोष लगाने में भी कोई सीमा है जो दोष को दोष समझते है एवं स्वीकार करते हैं उसका यथासमय प्रायश्चित्त लेते हैं एवं जो उस दोष प्रवत्ति को पूर्ण रूप से छोड़ने का संकल्प रखते हैं या यदि वह नहीं छूटने योग्य है तो उसे अपनी लाचारी कमजोरी समझ कर खेद रखते हैं अथवा भ्रम से ही कोई प्रवति चलती है तो उन्हें शिथिलाचारी की संज्ञा में नहीं गिना जायेगा। वे अपेक्षा से आचार में शिथिल होते हुए भी आत्मार्थी, सरल | 71
SR No.004412
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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