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________________ आगम निबंधमाला 33. आहार की कोई वस्तु भूमि पर या आसन पर रखे तो प्रायश्चित्त। निशीथ.उद्दे१६। 34. मकान बनाने के कार्य में साधु को भाग नहीं लेना चाहिए / - उत्तरा. अ.३५, गा. 3-9 / 35. साधु कोई भी वस्तु के क्रय विक्रय की प्रवृत्ति करता है तो वह वास्तविक साधु नहीं होता है / क्रय विक्रय महा दोषकारी है / - उत्तरा. अ. 35, गा. 13, 14, 15 / आचा. 1, 2, 5 / 36. आहार बनने बनवाने में भाग नहीं लेना, अग्नि का आरंभ बहुत प्राणी नाशक है / -उत्तरा. अ. 35, गा.१०, 11, 12 / / 37. विभूसावत्तियं भिक्खू, कम्मं बंधइ चिक्कणं / . संसार सायरे घोरे, जेणं पडइ दुरुत्तरे // -दशवै. अ. 6 गाथा 66 / __ अत्यंत आवश्यक स्वास्थ्य दृष्टि से एवं असहनशीलता के विचार से की जाने वाली प्रवृति को विभूषा नहीं कहा जा सकता। अच्छा दिखने की भावना व टीप टाप की वति को विभूषा का प्रतीक समझना चाहिए / गाहावईणामेगे सूई समायारा भवइ भिक्खू य असिणाणए, मोयसमायरे से, तग्गंधे दुग्गंधे, पडिकूले पडिलोमे यावि भवइ / -आचा. 2, 2, 2 / ऐसे आगम पाठ, अच्छा दिखने की वति के पक्षकार नहीं है / -उत्तराध्ययन अ.२, गाथा. 37 में जाव शरीर भेओति, जलं काएण धारए कथन से मैल परीषह सहने की विशिष्ट प्रेरणा है / 38. सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं॥ -आव. / अठारह पाप का करने कराने व भला जानने का जीवन पर्यन्त त्याग होता है। क्रोध करना, झूठ-कपट करना व निन्दा करना एवं आपस में कलह करना ये सभी स्वतंत्र पाप है ।इनका सेवन करके जो साधु प्रायश्चित्त आलोचना भी नहीं करते उपेक्षाभाव से शुद्धि करने में लापरवाही चलाते हैं वे शिथिलाचारी की कोटि में जाते है / 39. गहस्थ को बैठो, आवो, यह करो, सोवो, खड़े रहो, चले जावो आदि बोलना भिक्षु को नहीं कल्पता है / -दशवै. अ. 7, गा. 47 /
SR No.004412
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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