SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम निबंधमाला भी हजारों की संख्या में हैं / हुण्डावसर्पिणी के कारण कुछ कमी होवे भी तो हजारों में सैकडो साधु-साध्वी तो आज भी अनेक शास्त्रों को कंठस्थ धारण करने वाले प्रायः सभी संप्रदायों में होते ही है / देवर्धिगणि क्षमाश्रमण के पूर्व तक तो लेखन नहीं होने से कठस्थ परंपरा गुरूशिष्य में व्यवस्थित ही चलती रही है। ऐसी जिनशासन की व्यवस्था में श्रमण-श्रमणियों में किसी को एक भी अंग याद नहीं रहना और सभी अंगशास्त्र पूर्णत: विच्छेद हो जाना, ऐसा दिगंबर जैनों का मानना पूर्णत: असत्य और निरर्थक का स्वार्थ पूर्ण चलाया गया बकवास जैसा है। आगम पहले बडे और बाद में छोटे :- श्वेतांबर समाज में भी एक इतिहास चल पडा है कि आचाराग आदि सूत्र पहले बड़े बड़े थे फिर धीरे धीरे घटते गये / यह भी बिना विचारणा के भेडचाल की किंवदंती कथन परंपरा मात्र समझना चाहिये / वास्तव में भगवान के शासन में 1000 वर्ष बीतने पर पूर्वज्ञान बारहवाँ अंग सूत्र विच्छेद जाने का कथन भगवती सत्र में है वह तो संभव है। क्यों कि केवल विशिष्ट प्रज्ञावंत शक्तिशाली श्रमणों को सिखाया जाने से 300 की उत्कृष्ट संख्या घटती रही है जिससे वह श्रुत घटे यह शक्य है / फिर भी देवर्द्धिगणि के समय वीर निर्वाण 987 वर्ष तक कइयों को एक पूर्व का ज्ञान उपलब्ध था। उसी के आधार से अनेक अंग बाह्य शास्त्रों की रचना संघ संमति से की गई / ऐसी स्थिति में 11 अंगशास्त्रों का घट जाना या विच्छेद हो जाने रूप कल्पना कदापि संगत नही हो सकती / उपलब्ध शास्त्रों में उत्पन्न शंकाओं का समाधान :- आज जो कुछ भी शास्त्रों में जो भी कमी या परिवर्तन, पूर्वापर विभिन्नता और कई प्रश्न चिन्हों के योग्य भी आगम वर्णन उपलब्ध है उसमें मुख्य रूप से देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के समय सामुहिक विचारणा पूर्वक किये गये परिवर्तन संशोधन संपादन, वर्धन, निष्काशन-विभाजन आदि कारण है और देवर्द्धि के बाद के 1500-1600 वर्ष के लेखन काल, संयम शिथिलता का काल और पूर्षों के विच्छेद से रहे अल्प ज्ञानियों के काल की विशेष उपलब्धियाँ संभव है। लिखित होने से | 24 - -
SR No.004412
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy