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________________ आगम निबंधमाला सव्व भूयप्पभूयस्स, सम्म भूयाई पासओ। पिहियासवस्स दंतस्स, पावकम्मं न बंधइ ॥अध्य.४, गाथा-९॥ अर्थ- सभी प्राणियों में आत्म तुल्य बुद्धि रखने से, सम्यक् प्रकार से जीव स्वरूप को समझने से, कर्मागमन रूप आश्रव निरोध करने से, एवं इन्द्रियों का दमन करने से मुनि पाप कर्म नहीं बंधता है / पढम नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्व संजए। अन्नाणी कि काही, कि वा नाहीइ सेय-पावग ॥अध्य.४, गाथा-१०॥ अर्थ- पहले जीवों का ज्ञान करने से ही फिर उनकी दया का पालन हो सकता है / इसी सिद्धांत के आधार से संयम साधना होती है / अज्ञानी संयम का आचरण कैसे करेगा और हिताहित को-अच्छे खराब को कैसे जानेगा। सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं / उभयपि जाणइ सोच्चा, जं सेयं तं समायरे ॥अध्य.४, गाथा-११॥ अर्थ- ज्ञान को सुनकर ही अच्छा-खराब अर्थात् कल्याण एवं पापकारी कत्यों को जाना जाता है। अतः हिताहित दोनों को जानकर, सुनकर जो श्रेयकारी हो उसका आचरण करना चाहिये / जो जीवे वि न याणेइ, अंजीवे वि न याणेइ / जीवा जीवे अयाणतो, कहं सो नाहीइ संजमं ॥अ.४, गा.१२॥ अर्थ- जो साधक जीवों को नहीं जानता है, अजीवों को भी नहीं जानता है / इस प्रकार जीवाजीव का भेद नहीं समझने वाला संयम को कैसे समझेगा अर्थात् वह संयम को नहीं समझ सकता। जो जीवे वि वियाणेइ, अजीवे वि वियाणेइ / / जीवा जीवे वियाणतो, सो हु नाहीइ संजमं ॥अ.४, गा.१३॥ अर्थ- जो जीव अजीव उभय के स्वरूप को भलीभाँति समझता है वही संयम की विधियों को समझ सकता है, पालन कर सकता है / दुल्लहाओ मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा / मुहादाई मुहाजीवी, दोवि गच्छति सुग्गई // अ.५, उद्दे.१, गा.१००॥ अर्थ- प्रत्युपकार की बिना आशा रखे दान देने वाला दाता दुर्लभ है, बिना कुछ उपकार किए भिक्षा ग्रहण करने वाले साधु भी बिरले ही | 229
SR No.004412
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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