________________ आगम निबंधमाला को प्रकम्पित करे / वीर एवं समत्वदशी साधक नीरस और रूक्ष आहारादि का सेवन करते हैं, ऐसे मनि संसार सागर से तिर जाते हैं। वें ही वास्तव में तीर्ण, मुक्त एवं विरत कहे जाते हैं। जे अणण्णदंसी से अणण्णारामे, जे अणण्णारामे से अणण्ण दंसी ।-अध्य.२,उद्दे.६ ॥जो अनन्य (स्वयं) को देखता है वह अनन्य(स्व) में रमण करता है, जो अनन्य में रमण करता है, वह अनन्य को देखता है अर्थात् जो आत्म भाव में रमण करता है वही आत्मभाव स्वभाव को प्राप्त कर सकता है / माई पमाई पुणरेइ गभं / -अध्य.३,उद्दे.१ // मायी और प्रमादी बार बार जन्म लेता है। लोयंसी परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते / समिए सहिए सया जए, कालकंखी परिव्वए –अध्य.३,उद्दे.२ // अर्थ- जो लोक में परम तत्व को देखता है अर्थात् कर्म से मुक्त होने का सदा लक्ष्य रखता है वह विविक्त जीवन जीता है, उपशांत बनता है, सम्यग् आचरण एवं ज्ञानादि से युक्त होता है / वह सदा अप्रमत्त होकर जीवन के अंतिम क्षण तक मोक्ष के प्रति गति करता है। बहु च खलु पावं कम्म पगडं, सच्चम्मि धिई पुकव्वहा ।-अध्य.३, उद्दे.२ // इस जीव ने अतीत में बहुत पाप कर्म किये हैं, अत: मुमुक्षु प्राणी सत्य में-संयम में धति करे अर्थात् अब संयम तप में स्थिर होकर कर्म क्षय करने चाहिये / णिस्सारं पासिय णाणी उववायं चवणं णच्चा, अणण्णं चर माहणे। -अध्य.३,उद्दे.२ // ज्ञानी ! तूं देख कि विषय निस्सार है, जन्म जरा मरण निश्चित है यह जानकर हे अहिंसक ! तू अनन्य(मोक्ष मार्ग) का आचरण कर। णिविंद णंदि अरते पयासु / -अध्य.३,उद्दे.२ // काम भोग से उदासीन बन, स्त्रियों में अनुरक्त मत बन / कोहाईमाणं हणिया य वीरे, लोभस्स पासे णिरयं महंतं / तम्हाहि वीरे विरते वहाओ, छिन्देज्ज सोयं लहुभूयगामी // ___ -अध्य.३,उद्दे.२ // 223