SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम निबंधमाला - परस्पर आलोचना का दुष्फल बताते हुए भाष्य में कहा गया है कि साधु या साध्वी को कभी चतुर्थ व्रत भंग सम्बन्धी आलोचना करनी हो और आलोचना सुनने वाला साधु या साध्वी भी काम वासना से पराभूत हो तो ऐसे समय में उसे अपने भाव प्रकट करने का अवसर मिल सकता है और वह कह सकता है कि- 'तुम्हें प्रायश्चित्त तो लेना ही है तो एक बार मेरी इच्छा भी पूर्ण कर दो, फिर एक साथ प्रायश्चित्त हो जायेगा' इस प्रकार परस्पर आलोचना के कारण एक दूसरे का अधिकाधिक पतन होने की सम्भावना रहती है। इसके अतिरिक्त अन्य दोषों की आलोचना करते समय भी एकान्त में पुनः पुनः साधु-साध्वी का सम्पर्क होने से ऐसे दोषों के उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है। ऐसे ही कारणों से स्वाध्याय या वाचना आदि के सिवाय आगमो में साधु-साध्वी का परस्पर सभी प्रकार का सम्पर्क वर्जित है। इसलिए उन्हें एक-दूसरे के उपाश्रय में सामान्य वार्तालाप हेतु या केवल दर्शन करने हेतु अथवा परम्परा पालन के लिये नहीं जाना चाहिए। स्थानांगसूत्र निर्दिष्ट सेवा आदि परिस्थितियों से जाना तो आगम सम्मत है। साधु-साध्वियों के परस्पर सम्पर्क निषेध का विशेष वर्णन बृह. उ. 3 सूत्र एक के विवेचन में देखें। उस सूत्र में परस्पर एक दूसर के उपाश्रय में बैठने-खड़े रहने आदि अनेक कार्यों का निषेध है। साधु-साध्वी के शरीर सम्बन्धी और उपकरण सम्बन्धी जो भी आवश्यक कार्य हो वह प्रथम तो स्वयं ही करना चाहिए और कभी कोई कार्य साधु अन्य साधुओं से और साध्वियाँ अन्य साध्वियों से भी करा सकती है, यह विधि मार्ग है। रोग आदि कारणों से या किसी आवश्यक कार्य में व्यस्त होने के कारण, असमर्थ होने से परिस्थितिवश विवेकपूर्वक साधु-साध्वी परस्पर भी अपना कार्य करवा सकते हैं, यह अपवाद मार्ग है। अतः विशेष परिस्थिति के बिना साधु-साध्वी को परस्पर कोई भी कार्य नहीं करवाना चाहिए। इन सूत्रों में पारस्परिक व्यवहारों के निषेध का मुख्य कारण यह है कि इन प्रवृत्तियों से अति सम्पर्क, मोहवृद्धि होने से कभी ब्रह्मचर्य में असमाधि उत्पन्न हो सकती है और इस प्रकार के परस्पर अनावश्यक अति सम्पर्क को देखकर जन |149
SR No.004412
Book TitleAgam Nimbandhmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilokchand Jain
PublisherJainagam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year2014
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy