________________ प्रचुर मात्रा में शक्ति होती है तथा वह कार्यों से थकता नहीं है / इसके विपरीत अर्द्धमृत से दिखने वाले सुस्त व्यक्तियों में इस रस की कमी होती है। इस अवस्था को 'हाइपोथॉयराइडिज्म' कहते हैं। उनमें चयापचय क्रिया की दर निम्न हो जाती है ; जीवन सत्व, चर्बी, कार्बोज आदि की रूपान्तर क्रिया भी कम हो जाती है। शारीरिक तापक्रम कम हो जाता है और मस्तिष्क की क्रियाशीलता कम हो जाती है। ऐसी स्थिति में साधारणतः पाण्डु रोग हो जाता है। चल्लिका रस की उत्पत्ति के लिये आयोडिन तत्व की उपस्थिति आवश्यक है। इसी कारण उपरोक्त रोग उस प्रदेश में अधिक होता है जहाँ की मिट्टी में आयोडिन की मात्रा कम या नहीं के बराबर होती है / चुल्लिका ग्रंथि के पर्याप्त क्रियाशील न होने पर भी इसके रस - साव का परिणाम कम हो जाता है / इस क्षेत्र में योग सहायक है / योगाभ्यासों द्वारा इस ग्रंथि की क्रियाशीलता बढ़ा कर उचित मात्रा में इस शक्ति-प्रदत्त रस की प्राप्ति की जा सकती है। इसके विपरीत अधिक स्राव होने पर 'हाइपरथायराइडिज्म' की स्थिति पैदा हो जाती है / इस अवस्था में व्यक्ति असामान्यतः क्रियाशील तथा कठोर परिश्रमी बन जाता है | चुल्लिका ग्रंथि की क्रियाशीलता सीमा को पार कर जाती है। चयापचय क्रिया में अधिकतम तीव्रता आ जाती है / व्यक्ति दुर्बल हो जाता है। नाड़ी - संस्थान अधिक संवेदनशील हो जाता है। फलतः हाथों में कम्पन प्रारम्भ हो जाता है / हृदय की धड़कन बढ़ जाती है तथा साधारणतः घबराहट उत्पन्न होती है / पुनः योगाभ्यास द्वारा ग्रंथि के कार्यों को व्यवस्थित कर उपयुक्त परिमाण में चुल्लिका रस का स्राव किया जा सकता है। 4. उपचुल्लिका ग्रंथि ये बहुत छोटी ग्रंथियाँ हैं / वायु नलिका के दोनों तरफ इनकी स्थिति होती है। ये पूर्णतः चुल्लिका ग्रंथियों के भीतर अर्थात् उनसे ढंकी होती हैं परन्तु स्वतंत्र रूप से एक विशेष रस का स्राव करती हैं / यह ग्रंथि अस्थि के विकास कार्य को प्रेरित करती है तथा शरीर में कैल्शियम तथा फॉस्फोरस के वितरण - कार्य में व्यवस्था लाती है। 5. उपवृक्क ग्रंथि ___ ये दो ग्रंथियाँ वृक्क के शीर्ष प्रदेश से संयुक्त रहती हैं / प्रत्येक ग्रंथि के दो उपविभाग होते हैं परन्तु सामान्यतः ये उपविभाग दिखाई नहीं देते / मध्यस्थ भाग को मेड्यूला (medulla) कहते हैं / ऊपर के कोणीय आवरण को कॉर्टेक्स (cortex) कहते हैं। 364 .