________________ क्रियाशीलता में परिवर्तन लाते हुए शारीरिक रचना की क्रियाओं में परिवर्तन करते हैं। इन अंतःस्रावी ग्रंथियों के अंतर्गत पीयूष ग्रंथि, पीनियल ग्रंथि, क्लोम, उपवृक्क, चुल्लिका, उपचुल्लिका, बीजाण्डकोष एवं वृष्ण सम्मिलित हैं / प्रत्येक ग्रंथि की संख्या दो है जिनका कार्य संयुक्त रूप से होता है / यदि एक में दोष आ जाये या वह निष्क्रिय हो जाये तो दूसरी कार्य करती रहती है / परिणामतः शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहती है और उनके कार्यों में अवरोध उत्पन्न नहीं होने पाता। विभिन्न अंतःस्रावी ग्रंथियों के कार्य परस्पर संबंधित हैं। कोई ग्रंथि स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं करती / अतः किसी एक ग्रंथि में अव्यवस्था आने पर इसकी प्रतिक्रिया अन्य अंतःस्रावी ग्रंथियों पर होती है। .. 1. पीयूष या शीर्षस्थ ग्रंथि यह मटर के बराबर छोटी ग्रंथि है। इसका वास - स्थल मस्तिष्क का आधार है। इसका वजन मात्र आधा ग्राम होता है। छोटी आकृति को देखते हुए इस ग्रंथि को महत्वहीन न समझिये, क्योंकि समस्त शारीरिक ग्रंथियों में यह प्रधान ग्रंथि है / पूर्ण अंतःस्रावी ग्रंथि - प्रणाली से शक्तिशाली रसों की उत्पत्ति होती है | अतः अनिवार्य है कि पूरे समय उनके निर्माण - कार्य में व्यवस्था बनी रहे; अन्यथा पूरी प्रणाली निरर्थक सिद्ध हो जायेगी / यह कार्य शीर्षस्थ ग्रंथि का है / इस ग्रंथि से अनेक प्रकार के रसों का निर्माण होता है। इनमें से कुछ प्रत्यक्षतः शरीर पर प्रभाव डालते हैं; परन्तु अधिकांश रसों का कार्य अन्य अंतःस्रावी ग्रंथियों के कार्यों का नियंत्रण करना है। शरीरगत सभी क्रिया - कलापों पर शीर्षस्थ ग्रंथियों का विस्तृत रूप से प्रभाव पड़ता है। शरीर का विकास तथा रोग - निरोध-शक्ति का विकास शरीरपोषक रस 'somatotrophic hormone STH' द्वारा ही होता है / इसकी अनुपस्थिति में हल्के स्पर्शदोष से भी सरलता से मृत्यु हो जायेगी। यह विशेष रस श्वेत रक्त कोशिकाओं को गतिशील तथा प्रतिकारक बनाता है जो स्पर्शदोष से हमारी रक्षा करती हैं। इसी ग्रंथि द्वारा तैयार किया गया एक दूसरा पोषक रस 'adrenocortrophic hormone ACTH' है जो उपवृक्क ग्रंथि को क्रियाशील बनाता है। 362