________________ आसन -प्राणायाम के उपरान्त तथा ध्यानाभ्यास के पूर्व / आदर्श अभ्यास के लिए मुद्रा एवं प्राणायाम के साथ कीजिये। .. सावधानी . योग्य व्यक्ति के निर्देशन में इस अभ्यास में दक्षता प्राप्त कीजिये। सीमाएँ जालन्धर बन्ध के समान ही। प्रारम्भिक प्रक्रिया प्रारम्भ में कुम्भक की पूर्ण अवधि तक स्नायुओं को संकुचित रखने में कठिनाई होगी। अतः आरम्भ में अश्विनी मुद्रा का नियमित अभ्यास कीजिये, जिसके फलस्वरूप स्नायु मजबूत होंगे तथा अभ्यासी को उन पर नियंत्रण प्राप्त होगा। लाभ इस क्रिया में प्रजनन एवं उत्सर्जक अंगों के मध्य मूलाधार प्रदेश का आकुंचन तथा ऊपर की ओर खिंचाव होता है। परिणामतः 'अपान वायु (नाभि के निम्न प्रदेश में स्थित प्राण की शक्ति) का बहाव ऊपर होता है और उसका योग 'प्राण वायु' (स्वर यन्त्र एवं छाती के मूल के मध्य में स्थित) से होता है / फलतः शक्ति उत्पन्न होती है। कुंडलिनी -जागरण में सहायता मिलती है। ब्रह्मचर्य पालन तथा ओज -शक्ति को जगाने में सहायक है। जालन्धर बन्ध के लाभ द्विगुणित हो जाते हैं। कटिबन्ध प्रदेश की नाड़ियों को उत्तेजित करता है तथा उससे सम्बन्धित प्रजनन तथा उत्सर्जक अंगों को व्यवस्थित करता है। गुदाद्वार की मांसपेशियों (sphincter muscles) को शक्ति प्रदान करता है तथा आँतों के वक्र-प्रदेशों को उत्प्रेरित करता है। इस प्रकार प्रभावपूर्ण ढंग से अपचन दूर करता है। बवासीर के निवारण में सहायक है। टिप्पणी यह अभ्यास मानसिक अवस्था में परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को योग के अन्तिम उद्देश्य अर्थात् असीम सत्ता की ओर ले जाता है। . 292