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________________ 46 2. ऐसा जीव सुख-दुःख दोनों अवस्था में समपरिणामी रहता है। अर्थात् हर्ष और शोक से वह अपनी प्रात्मा को अलग रख लेता है। (37) योग प्रवृत्तियों को अल्पमत करने या त्याग करने से१. जीव योग रहित और पाश्रव रहित अर्थात् 2. कर्म बंध रहित अवस्था को प्राप्त करता है। 3. और पूर्व कर्मों का क्षय कर देता है। (38) शरीर का पूर्णतया त्याग कर देने से--१. प्राणी प्रात्मा को सिद्ध अवस्था के गुणों से युक्त बना लेता है एवं 2. लोकान में पहुंच कर प्रात्म स्वरुप में स्थिर हो जाता है। 3. जन्म मरण एवं संसार भ्रमरण से सदा के लिए छ ट जाता है / (36) किसी भी कार्य में दूसरों का सहयोग लेने का त्याग कर देने से अर्थात् समूह में रहते हुए भी अपना समस्त कार्य स्वयं करने रूप एकत्व चर्या में रहने से--१. साधक सदा एकत्व भाव में रमरण करता है। 2. एकत्व की साधना से अभ्यस्त हो जाता है / 3. अनेक प्रकार की.अशान्ति से एवं कलह, कषाय, कोलाहल और तूतू आदि की प्रवृत्तियों से मुक्त हो जाता है / 4. तथा उसे संयम, संवर और समाधि की विशिष्टतम उपलब्धि होती है। (40) आजीवन अनशन करने से अर्थात् मृत्यु समय निकट जानकर स्वतः संथारा धारण कर लेने से-भव परम्परा की अल्पता हो जाती है अर्थात वह प्राणी भव भ्रमण घटा कर अत्यल्प भवों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है / (41) संपूर्ण देहिक प्रवृत्तियों का निरोध करने से अर्थात् देह रहते हुए भी देहातीत बन जाने से--वह केवल ज्ञानी योग निरोध अवस्था को प्राप्त कर चार प्रघाति कर्म भी क्षय कर मुक्त हो जाता है।
SR No.004386
Book TitleAcharang Sutra Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgam Navneet Prakashan Samiti
PublisherAgam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages60
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aagam_saar
File Size6 MB
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