________________ 44 (5) अपने दोषों की आलोचना करने से--मोक्ष मार्ग में विघ्न करने वाले और अनन्त संसार की वृद्धि करने वाले ऐसे माया, निदान और मिथ्यात्व रूप तीन शल्यों का नाश होता है। सरल भावों की उपलब्धि होती है। (6) आत्म निन्दा अर्थात् अपनी भूलों के प्रति खेद अनुभव करने से--१. पश्चाताप होकर विरक्ति भाव की वृद्धि होती है और 2. उससे गुणस्थानों की क्रमशः बढोतरी होकर मोह कर्म का क्षय होता है। (7) दूसरों के समक्ष अपनी भूल प्रकट करने से--जीव अपने अनादर असत्कार जन्य कर्मो की उदीरणा करता है और क्रमशः घाती कर्मों का क्षय करता है। (8) सामयिक स्वीकार करने से-पाप प्रवृतिएं छूट जाती हैं। (8) लोगस्स पाठ (24 तीर्थंकर की स्तुति) करने से-- सम्यक्त्व की विशुद्धि होती है। (10) वंदन विनय करने से--१. हल्के कर्मों का क्षय एवं ऊंचे कर्मों का उपार्जन होता है। तथा 2. उसकी प्राज्ञा को लोग शिरोधार्य करे ऐसे सौभाग्य को और जनप्रियता को प्राप्त करता है। (11) प्रतिक्रमण करने से-१. लिए हुए व्रत पच्चक्खानों की शुद्धि होती है। 2. जिससे चारित्र शुद्ध होता है। 3. समिति गुप्ति रूप प्रष्ट प्रवचन माता में जागरुकता बढ़ती है। 4. तथा भाव युक्त प्रतिक्रमण करने से संयम में तल्लीनता की वृद्धि होती है एवं 5. मानसिक निर्मलता की उपलब्धि होती है। (12) कायोत्सर्ग करने से अर्थात् मन वचन तथा शरीर का पूर्णतः व्युत्सर्जन कर देने से--१. भार नीचे रख देने वाले भारवाहक के समान बह साधक हल्का हो जाता है। 2. और